Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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से इसका महत्व अवश्य है, किन्तु बाद में यह सब बातें गौण हो जाती है। सम्यक् साधना में व्यक्ति कहीं किसी से पलायन नहीं करता और न यह अभिव्यक्त होने देता है कि वह किसी प्रकार से असामान्य या विशिष्ट है। भौतिक सामग्री या वैभव को सच्चा साधक आत्मभाव से देखता है और उसका उपयोग आध्यात्मिक दृष्टि से करता है। यहाँ फिर वही बात दोहराने को जी करता है कि कलाकार के लिए पत्थर का छोटा-सा कण भी उसकी विशाल एवं व्यापक भगवत् - भावना का अंश है। अपने कर्म को व्यक्ति जब सर्वात्मभाव से सम्पन्न करता है और उसमें उसका स्वार्थ तिरोहित हो जाता है, तब वह केवल कर्म नहीं रह जाता वह अकर्म ही हो जाता है। योगीन्द्रदेव ने लिखा है
जहिं भावइ तहि जाहि जिय जं भावइ करि तं जि । केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चितहं सुद्धि णं जं जि ॥ - हे जीव जहां खुशी हो जाओ, और जो मर्जी हो हो तब तक मोक्ष नहीं भिलेगा।
जैन श्रमण परम्परा की यह अनोखी विशेषता रही है कि गृहस्थवर्ग से निरंतर सम्पर्क रखते हुए भी, उनसे प्रतिदिन आहारादि प्राप्त करते हुए भी श्रमण आकांक्षाओं से परे रहते है, और भ्रामरीवृत्ति से विचरण करते है। फूल से अपनी आवश्यकता भर पराग ग्रहण करने वाले भ्रमर का जीवन जैन श्रमणों की चर्या के लिए उत्तम द्रष्टान्त रुप में प्रस्तुत किया जाता है।
जैनधर्म या दर्शन का अपना कर्म सिद्धान्त है। उसका भाग्य या कर्त्तव्य से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। यह कर्म सिद्धान्त दार्शनिक निष्पत्ति है जिसके अनुसार व्यक्ति सम्यग् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के समन्वित मार्ग पर सन्तुलनपूर्वक साधना करता हुआ अपने साध्य को प्राप्त करता है। वह त्यागने के लिए कुछ नहीं त्यागता, ग्रहण करने के लिए कुछ ग्रहण नही करता । उसका लक्ष्य होता है-अपनी चेतना में से सब प्रकार की जडता अजीवता को समाप्त करना अथवा निर्जीवता मात्र को अपनी चेतना या स्फूर्ति द्वारा सजीव बनाकर उसके प्रति समभाव स्थापित करना ।
- ( परमात्म प्रकाश, २, ७०)
करो, किंतु जब तक चित्त शुद्ध नहीं
जैनाचार्यों ने व्यर्थ साधनाओं को कोई महत्व नहीं दिया। भौतिकता में रचे-पचे लोगों के लिए ऐसी साधनाएं है जो आकर्षण का कारण बन सकती है और जिनमें किसी अनोखी चमत्कृति का दर्शन होता है। वे जन-पूज्य भी बन जाते है। पानी पर चलना, दिवाल को चला देना, दिन में तारे उगा देना, मनचाही वस्तु को निमिष मात्र में उपस्थित कर देना, भविष्यवाणी करना, दूसरे के मन की बात जान लेना, में कूद पडना, शूली पर लेट जाना, या शस्त्र क्रिया द्वारा अंग-भंग करना, आदि सैकडों प्रकार की साधनाओं में लोग वर्षो तक लगे रहते है। लेकिन जैनधर्म ने इन प्रक्रियाओं को लोकैषणा कहा है, कषाय कहा है। साधना तो वही उपादेय है जो राग-द्वेष से विरत करे। पंडित दोलतराम जी ने स्पष्ट कहा है
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सारांश यह कि समस्त चराचर जगत् के प्रति समताभाव रखने की साधना सर्वोपरि साधना है । सापेक्ष अथवा साकांक्ष साधना से योगैश्वर्य प्राप्त हो सकता है, स्वर्ग तक मिल सकता है, और तो और कल्पनातीत अनुत्तर विमान का सुख भी मिल सकता है। किन्तु निराकुल सुख की प्राप्ति तो साम्यावस्था में ही उपलब्ध हो सकती है। मोक्ष भी अन्ततः अपनी आकांक्षाओं
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यह राग आग है सदा तातें शमामृत सेइये ।
चिर भजे विषय कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये || (छहढाला)
कर्तव्य के प्रति जहाँ निष्ठा दृढ होती हैं, वहाँ मन में उत्साह की और में नेराश्य आता ही नहीं है।
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