Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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शब्द, बंध, साक्षम्य, स्थौल्य, संस्तानभेद, तमश्छाया, आतप, उधीत सहित - ये सभी पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। शब्द दो प्रकार के हैं - भाषात्मक और अभाषात्मक। भाषात्मक भी दो प्रकार का है - उदारात्मक तथा अनदारात्मक। अदारात्मक के भी संस्कृत प्राकृत आदि अनेक प्रकार हैं। अनदारात्मक भेद भी द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों में तथा सवै की दिव्यध्वनि में हैं। अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिकृतथा वैत्रसिक भेद से दो प्रकार हैं। इस प्रकार मंत्र जिन शब्दों या मातृकाओं से घटित होता है - उनके सम्बन्ध में यह स्थिर हुआ कि भाषा वर्गणा का घटक परमाणु रुप और संघात रुप-द्विविध मातृकाएं होती हैं - अर्थात् उनके सूक्ष्म और स्थूल - दो रुप होते हैं। ब्राह्मण दर्शनों या तंत्र ग्रन्थों में कहा गया है - 'वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे' वाक् से ही सारी सृष्टि हुई है और यह वाक् ही प्रजापति है। निश्चय ही जो सबका कारण है - वह किसी से अपनी उत्पत्ति की अपेक्षा नहीं करता - अर्थात् वह मूल तत्व है। वह शब्द जिसकी उत्पत्ति और ज्ञाप्ति में तमाम कारणों की अपेक्षा है - वह स्थूल शब्द है - श्रीत्रग्राह्य है। यह सातिशय है। यही योगज शक्ति ग्राह्य अवस्था में सूक्ष्म है। बात यह है कि स्थूल संघातात्मक शब्द श्रोत्रग्राह्य है - पर परमाणु रुप नहीं - दो परमाणुओं से निर्मित संघातात्मक शब्द के स्पन्दन से जो ध्वनि बनती है (वह भी शब्द द्रव्य ही है) वह सामान्य श्रीन्द्रिय से ग्राह्य नही होगी। कारण, विज्ञान बताता है कि स्पन्दन आवृत्ति की दो सीमाएं हैं - कम से कम और ज्यादा से ज्यादा (Lower Limit and Upper Limit) दोनों सीमाओं का अतिक्रमण करने पर हमारी श्रोत्रंन्द्रिय की शक्ति उसे ग्रहण नहीं कर सकती। पर श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति से ग्रहण नहीं होने का तात्पर्य यह नहीं कि स्पन्दन से ध्वनि होती ही नहीं - अवश्य होती है। समाधि द्वारा हमारी बढ़ी हुई योगजशक्ति से उसका साक्षात्कार हो सकता है। ये दोनों प्रकार के शब्द सातिशय हैं। यदि भाषा वर्गणा के घटक परमाणु पुद्गलों में स्पन्दनजनित ध्वनि है - तो वह निरतिशय है। इसकी ग्रहण शक्ति हमारी निरतिशय शक्ति है - प्रजापति शक्ति है - निर्मात्री शक्ति है - वह शब्द 'तन्मात्र' है। सृष्टि में जो कुछ भी प्रवाहनित्य रुप से बनता-बिगड़ता रहता है - आकर्षण-विकर्षण के कारण और यह आकर्षण-विकर्षण एक गति के ही कारण होता है। वैसे तो सृष्टि ही गति है पर निर्माण के अनुरुप जो आकर्षण-विकर्षण रुप गति है-वह भाषा वर्गणा के घटकपुद्गलात्मक शब्द परमाणुओं में है। इसीलिए उनसे घटित मंत्रो में इतनी 'शक्ति' होती है कि उससे सभी वांछित कार्यो की निष्पत्ति हो जाती है। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में कहा गया है
__ अकारादिक्षकारान्ता वर्णा प्रोषतास्तु मातृकाः।
सष्टि न्यासस्थिति न्याससंहति न्यासस्त्रिधा ।।३७६॥ अर्थात् अकार से अकार (क+व+ज) पर्यन्त मातका वर्ण कहलाते हैं। इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम। ___ मंत्री में मंत्रराज णमोकार मंत्र है - आत्मशक्ति की पुन: प्राप्ति इसी मंत्र की साधना से होती है। यों तो शान्ति और पुष्टि के निमित्त भी मंत्रीका स्वरुप तथा विधान है इसीलिए मंत्रो की क्रिया निरुपणा है आत्मशक्ति की अभिव्यक्ति के निमित्त और सांसारिक उपलब्धियों के निमित्त। जैनशास्त्रों में दोनों प्रकार के मंत्रो का सांगोपांग निरुपण है। स्वयं णमोकार मंत्र में सब प्रकार ऐहिक और आमुष्मिक - की सिद्धि प्रदान करने की क्षमता है। उक्त श्लोक इस सन्दर्भ में नितान्त महत्वपूर्ण है। णमोकार मंत्र में मातका ध्वनियोंका तीनों प्रकार का क्रम
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मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती हैं।
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