Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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न रखूं तो न जाने ये कौन से गहरे गर्त में गिरा दे । कृत्रिम रस बहुतगरीष्ठ और तला-भुना दुष्पाच्य भोजन, दुस्साध्य बीमारीयों तथा मानसिक विकृतियों को जन्म देता है। अपनी शीतल छांव में पालता - पोषता है। दोष, अन्न को नहीं, मानव की रस लोलुपता को जाता है। उसे जीतना कठिनतम कार्य है। कहा है
"अक्खाण रसणी, कम्माण मोहणी, तह वयाण बंभवयुं । गुत्ती, व्यमण गुत्ती, चउरो दुक्खेण, जिप्पति"
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इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, अष्ठकर्मों में मोह कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य तथा गुप्तियों में मन गुप्ति पर विजय पाना कठिनतम कार्य है। रसलोलुपता को जीत लेने पर ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा, प्राण का ऊर्ध्वगमन और चित्त वृत्तियों की निर्मलता घटित होती है। इसीलिए महावीर ने कहा- साधना का प्रारम्भ, आहार शुद्धि से होता है। बहिरंग तपोयोग के चार भेद, आहार शुद्धि से जुडे हुए हैं।
उनमें प्रथम है- अनशन - भोजन का सर्वथा परिहार, दूसरा- ऊणोदरी भूख से कम या एक साथ पदार्थ खाना । यह साधना के साथ शरीर के लिए भी उपयोगी है। कम खाने वाला अपने पाचन तंत्र को बहुत राहत पहुंचाता है। गहरी भूख लगने पर पाचक रसों का स्त्राव होने लगता है। जितना स्त्राव होगा, उतना ही पचेगा, शेष व्यर्थ जाता है। तीसरा रस परित्याग रस मृत गरिष्ठ भोजन का परिहार | रस परिहार का उत्कृष्ट तप-आयंबिल, अनेक सिद्धि प्रदायक ही नहीं, व्याधि-विनाशक भी होता है।" आहार और अध्यात्म" नामक पुस्तक में प्रेक्षा पुरुष युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजीने बताया है- " आयंबिल में कोरा एक धान्य और पानी चलता है। यह एक तपस्या का प्रयोग है पर पक्षाघात जैसी भयंकर बीमारियां आयंबिल से नष्ट होती हैं। इन पंक्तियों को पढ़ ही रहा था कि इस सच्चाई का जीता-जागता प्रसंग सामने आ गया। मूलतः वारणी ( राजस्थान) निवासी, वर्तमान में बेगलोर प्रवासी श्री घमण्डीरामजी सुराणा वर्षों पूर्व पक्षाघात के जबरदस्त आक्रमण से पीड़ित हो गये थे। प्रत्यक्षदर्शी उस दयनीय हालत की स्मृति मात्र से रोमांचित हो उठते हैं किन्तु आयंबिल सदृश प्रयोग से काफी स्वस्थ हो गए। पूरा प्रसंग, मेरी सद्य: प्रकाशित "शब्द की चोट" नामक पुस्तक में देखे। आयंबिल तप व नवपद की आराधना से श्रीपाल कुष्ठ मुक्त हो गये। जैनों में प्रसिद्ध कथा है।
व्याधियां ही नहीं, लब्धियां - सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। तेजोलब्धि उत्पन्न होने के प्रसंग में बताया गया है कि साधक छः मास तक दो-दो दिन के उपवास करता है, पारणें में मात्र उड़द के बाकुले व दो फुसली पानी लेता हुआ सूर्य के सामने खड़ा खड़ा आतपना लेता है । इस प्रकार छ: मास करने से तेजो लब्धि प्राप्त होती है, जिससे निग्रह - अनुग्रह की शक्ति मिलती है।
कुछ वर्ष पूर्व लाडनू में एक व्यक्ति आया, जो जमीन में कहां कूआ खोदने पर पानी निकलेगा बताता था । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजीने उससे पूछा कि आपने क्या प्रयोग किया? जिससे भूगर्भ का ज्ञान हो सका ? उसने कहा- मेरे गुरुने एक प्रयोग बताया था - छ: महीने तक एक अनाज खाया जाए व केवल पानी पीया जाए तो भूगर्भ में छिपी वस्तुओं का ज्ञान हो सकता है।
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आग का छोटे से छोटा तिनका भी भयंकर ज्वाला निर्मित कर सकता है।
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