Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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तो वे अच्छे लगें। मेरे मन में उन्हें साधुवाद दिया। संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ।
आदिवासियों की एक युवती थी, ताजी तरुणी। उसके अंग-प्रत्यंग उभरे थे। नेताजी का मन उस पर चलवाया। चंचल था, सधा नहीं, वैसे वे सदयात्री थे। वह व्यक्ति उस युवती के पास जाता है और उसके उन्नत पयोधरों को देखकर उससे पूछता है ये क्या है? और यह जानकर आपको आश्चर्य होगा, नेताजी की आँखे तो खुल ही गईं। वह आदिवासिनी कहती है दूधदानी हैं। बच्चों को दूध पिलाने की मशीन है। धन्य है वह साध्वी जिसने अपने अंग-प्रत्यंग के उपयोग पर ध्यान दिया। आज सभ्य कहलानेवाले महापुरुष अपने अंगो के उपयोग में भी अनुपस्थित है। आत्मिक उपयोग की बात हम करते हैं। मेरी भावनाएँ कितनी कुत्सित हैं, भ्रष्ट हैं। उस निरक्षर वन वासिनी से सीख लें, जिसका उपयोग पक्ष कितना सजग है जिसका उपयोग पक्ष कितना विवेकवान है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दटूठं ववस्से समणे तवस्सी।
अथति तपस्वी श्रमण (साधक) स्त्रियों के रुप लावण्य, विलास, हास-परिहास, भाषण-संभाषण स्नेह, चेष्टा अथवा कटाक्षयुक्त द्दष्टि को अपने मन में स्थान नहीं देता तथा उसे देखने तक का प्रयास नहीं करता है।
जिस आदमी का जीवन ब्रह्मचर्य से व्याप्त हो जाता है, वह आदमी दूसरों के लिए नहीं, अपितु अपने लिए भला आदमी बनता हैं। और उसका अन्तरंग अखण्ड आनन्द से आलावित हो उठता है। उसके हर चरण में विनम्रता, प्रामाणिकता, शील और सौजन्य की सुगंध विकीर्ण होती हैं। वह चरण सदाचरण में परिणत होता है तब जीवन में अन्तत: मंगलाचरण का प्रवर्तन होता है।
गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्यका अनुपालन आंशिक रुप से करने का विधान है जबकि श्रमण - साधु उसका पूर्ण रुप से अनुपालन कर संयम; खलु जीवन को चरितार्थ करते है। अणुव्रती होकर हम अपनी चर्या को यथाशक्ति संयमित कर आदर्श की स्थापना कर सकते हैं। आज का जन-जीवन प्राय: नियमों-उपनियमों की अवहेलना करता हुआ दु:ख संधातों से जूझ रहा है। जीवन में सुख और शान्ति का संचरण होने के लिए हमें हमारी चर्या में शीलता, समता और कर्मण्यता के संस्कार जगाने होंगे।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य आत्मिक गुणों में से एक गुण/लक्षण है। इसके प्रकट होने से उसकी सुरक्षा होनेसे जीवन में अद्भूत शक्ति, ओज और आभा का संचरण होता है और होता है शारीरिक अंगो में लावण्यता और कार्यशीलता में अभिबर्द्धन।
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मानव महान हो तो भी, अज्ञान की गुलामी से, सत्य का निरीक्षण नही कर पाता।
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