Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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ब्रह्मचर्य एक दृष्टि
डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया एम.ए.,पी.-एच.डी.,डी.लिट्
प्राणधारियों में मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है। इसकी श्रेष्ठता का आधार है अन्य प्रणियोंकी अपेक्षा ज्ञान की प्रकृष्टता। ज्ञान से उत्पन्न शक्ति - विवेक अथवा भेद विज्ञान उत्कृष्ट प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। मनुष्य में विवेक जागृत होने पर उसकी जीवन-यात्रा उन्मार्ग से हटकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख होती है। ब्रह्मचर्य विवेकवान मनुष्य द्वारा अनुपालन किया जाता है।
मन से, वचन से और काय-कर्म से समस्त इन्द्रियों का संयम करने का नाम वस्तुत: ब्रह्मचर्य है। गुप्ति पूर्वक इन्द्रिय संयम होने पर आत्मिक गुण ब्रह्मचर्य मुखर हो उठता है। किसी एक के साथ संयम बरतने से ब्रह्मचर्य की पूरर्तता सम्भव नहीं। इसके लिए इन्द्रियों के विषय में सावधानी पूर्वक विचार करना आवश्यक है।
इन्द्रिय शब्द के मूल में शब्दांश है इन्द्र। इन्द्र शब्द के अनेक अर्थ हैं। इन्द्र शब्द का एक अर्थ है आत्मा। जो आत्मा के परिचायक हैं उन्हें कहते हैं - इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा आत्मा के अस्तित्व का अवबोध किया जाता है। इन्द्रियोंका परिवार पाँच रूपों में विभक्त है - कर्ण, चक्षु, नासिका, जिवा तथा स्पर्श। यह विभाजन अन्त: और बाह्य दो प्रभेदों में बाँटा गया है। इन भेदों का उपयोग मन के माध्यम से किया जाता है। मन इन्द्रिय वस्तुत: मनुष्य की अतिरिक्त इन्द्रिय है। इस प्रकार एकादश इन्द्रियों का धारी मनुष्य भव-भ्रमण और भव-मुक्ति में से किसी एक का निर्वाचन करता है। जब वह भव-भ्रमण में रुचि रखता है तब काम और अर्थ पुरुषार्थों का सम्पादन होता है। भव-मुक्ति के लिए धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ सम्पन्न करना होता है। इसके लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक है।
पुरुषार्थों काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष के सम्पादन के लिए "मैथुन' शब्द की भूमिका वस्तुत: उल्लेखनीय है। काल और क्षेत्र के आधार पर किसी शब्द का अर्थ-अभिप्राय में यथेच्छ परिवर्तन होता रहता है। 'मैथुन' शब्द का अर्थ भी गिर गया है। मैथुन शब्द का आज आम अर्थ भोग-सम्भोग के लिए किया जाता है, जबकि मैथुन शब्दका मूलत: अर्थ है - युग्म, जोड़ा, किसी दो का योग। मैथुन शब्द का यह अर्थ-साधना और आराधना के सन्दर्भ में मान्य है।
और है वासना के प्रसंग में भी गृहीत। उपादान और निमित्त युग्म है। यह दो श मैथुन/युग्म है। अगर ये दोनों शब्द नहीं जगे तो साधना सम्पन्न नहीं हो पाती। मैथुन आवश्यक
__ आत्मा और इन्द्रियों का जब बहिरंग प्रयोग सम्पन्न होता है तब इन्द्रियों के बाहरी द्वार खुलते हैं तभी संभोग प्रक्रिया का प्रवर्तन होता है। इन्द्रियों के बाह्य व्यापार प्राणी को शाश्वत तृप्ति प्रदान नहीं करते। इस योजना में तृप्ति की शक्ति ही नहीं है। जब आत्मा इन्द्रियों के 'अंतरंग प्रयोग में प्रतिष्ठित होता है तब वस्तुत: योग का जन्म होता है और तब उत्तरोत्तर
उपयोग जगा करता है। उपयोग ब्रह्मचर्य का पहला चरण है। अगर उपयोग नहीं जगा, तो डिग्री
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अकार्य में जीवन बिताना गुणी और मानी जन का किंचित भी लक्षण नहीं।
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