Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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ब्राह्मण । अरण्यवासी होने मात्र से ही कोई मुनि नहीं होता और वल्कल चीर धारण करने मात्र से कोइ तपस्वी नहीं होता ।
आज के जातीय विदेष, वर्णसंघर्ष एवं पारस्परिक घृणा से बचने के लिए स्नेह, सद्भाव एवं करूणा की आवश्यकता है। यदि लक्ष्मी के लाड़ले अपने को ट्रस्टी मात्र ही मानें तो शोषण की भावना समाप्त हो जाती है। कार्ल मार्क्स ने काफी हद तक इस दिशा में सोचा परन्तु जीवन के धरातल पर जब सिध्धांत को मूर्तरुप दिया गया तो हठाग्रह के कारण हिंसा उभर आई। उनके भीतर वस्तु स्वभाव की शुद्ध क्रिया आंशिक रूप से झलकी थी परन्तु वे वस्तु की निरन्तर प्रगतिशीलता के साथ तदाकार नहीं रह सके। द्रव्य के उत्पाद और व्यय को तो उन्होंने पकड़ा था परन्तु ध्रौव्य उनकी दृष्टि से ओझल रह गया । ऐन्द्रिक - बौद्धिक ज्ञान की सीमाओं से उनका दर्शन अवरुद्ध हो गया।
नये समाज की परिकल्पना से पूर्व महावीर ने यह संदेश दिया कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता 'अप्पाकत्ता विकत्ताय, सुहाण य दुहाण य' है अर्थात् उसके कर्म ही उसे ऊंचा उठा सकते है या नीचा गिरा सकते हैं। ईश्वर को जगत्कर्ता न मानने की मौलिक मान्यता से व्यक्ति की गरिमा बढी । साथ ही सिद्ध हो गया कि व्यक्ति स्वयं स्वतंत्र, मुक्त निर्लेप और निर्विकार ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। ईश्वरत्व को प्राप्त करने के साधनों पर किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं हैं। मन की शुद्धता व आचरण की पवित्रता के बल पर कोई भी इसे प्राप्त कर सकता है।
अनेकांतवादः वादों का अन्त
अनेकान्त या स्यादवाद बौद्धिक दृष्टिकोण की नयी दिशा है जो अहिंसा का ही व्यापक रुप है। रागद्वेष जनित संस्कारो के वशीभूत न होकर दूसरों के दृष्टिकोण को ठीक से समझना अनेकांतवाद है। जबवस्तु या ज्ञेय बहु-आयामी, बहु-पर्यायी है तो किसी भी मत, वाद या सिद्धान्त को पूर्णरुप से सत्य नहीं कहा जा सकता । पूर्ण ज्ञान की स्थिति में ही किसी वस्तु के सभी पर्यायों देखा या जाना जा सकता है।
महावीर कहते हैं कि वस्तु जो इस क्षण है, वही अगले क्षण नहीं है और फिर भी अपने तात्विक रुप में सदा वही है। अर्थात् इस जगत् में प्रतिक्षण कुछ व्यतीत हो रहा है, कुछ नया उत्पन्न हो रहा है तो यह दम्भ कोई नहीं कर सकता कि उसने सबकुछ जानलिया, पूर्ण रुप से जान लिया। अतः अपना 'ही' छोडकर हम दूसरों के 'भी' को भी मानें, ऐसी समन्वय की उदारद्दष्टि अनेकान्त है।
महावीर ने अनेकान्त के सिद्धान्त को तार्किक रूप देकर स्याद्वाद नाम दिया। किसी बात के सात पहलुओं पर विचारकर उन्होंने सिद्ध किया कि उसका अस्तित्व है। नहीं है। अवक्तव्य है आदि (स्यात अस्ति, स्यात नास्ति, त्यात आस्ति नास्ति, स्यात अवकव्य, स्यात अस्ति अवक्तव्य, स्यात नास्ति अवक्तव्य, स्यात अस्ति नास्ति अवक्तव्य ) । आज इस विचार से व्यक्ति, समाज, विश्व के तनाव, संघर्ष और वैमनस्य को समाप्त किया जा सकता है। द्दष्टि के बदलते ही सृष्टि भी परिवर्तित हो जाएगी। खुल सकेंगे मुक्तदार, जिनके पार असीम सुख एवं आनन्द है ।
सम्प्रदायातीत धर्म - स्वभाव में स्थिर होना
राजमहलों के सुखों में लिप्त न रहकर महावीर ने आत्मधर्म का संदेश दिया। उनको चाह नहीं थी कि अपना कोई धर्म चलाएं। उन्होंने तो सत्य मार्ग बतलाया कि वस्तु का स्वभाव
पाप का उदयकाल होता है तब पुण्य भी स्तंभित हो जाता है।
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