Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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जब श्रावक की साधना आत्मशोधन के एक बिन्दु पर पहुँच जाती है तो वहाँ उसकी समग्र चेतना प्रकृतिस्थ हो जाती है। वह परम (निर्ग्रन्थ) हो जाता है। निर्ग्रन्थ केवल रुढ नग्रता के अर्थ में नहीं, बल्कि सम्पूर्णमना वह दिशाओं के विराट् वस्त्र को ओढलेता है। संसार मे रहकर भी वह संसार का नहीं रह जाता। श्रमण के लिए जैन ग्रन्थों में सत्ताइस मूलगुणों के पालन का विधान है। वे निरन्तर बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते है। श्रमण दश धर्मो का पालन करते है। मन-वचन-काय का गोपन करते हैं करते हैं और चलने, बोलने, खाने-पीने आदि के रूप में पाँच समितियों का सावधानीपूर्वक आचरण करते है। इस प्रकार की साधना का प्रतिपादन अन्यत्र दुर्लभ है।
इस साधना में एक ऐसा तत्व-दर्शन अन्तर्भूत है जो साधक को साध्य से विमुख नहीं होने देता। नौ व सात तत्त्व एव छ: द्रव्यमूलक सृष्टि-व्यवस्था का निदर्शन जैन-दर्शन की अपनी मौलिक देन है। इस तत्त्वज्ञान की आधारशिला पर ही समग्र साधना की इमारत खड़ी है। कहने का तात्पर्य यह है कि केवल नैतिक उपदेशों या कर्मकाण्डों के आधार पर की गई साधना मनुष्य को तपस्वी तो बना सकती है, उसमें सहिष्णुता भी आ सकती है, किन्तु साध्य अस्पष्ट ही रहता है। जैनधर्म के अनुसार साधक के समक्ष साध्य का चित्र स्पष्ट रहता है और उसी के चतुर्दिक उसकी साधना का चंक्रमण होता है।
जैन साधक तप भी करता है। जैन साधक के लिए बारह प्रकार के तपों का विधान है। छ: तप बाह्य हैं और छ: आभ्यन्तर। बाह्य तपों के द्वारा साधक कभी अनशन करके, कभी भूख से कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण करके, कभी किसी रस को तज करके,
और कभी शरीर को नियन्त्रित करके वासनाओं पर अंकुश लगाता है, अभिलाषाओं को संकोचता है। आन्तरिक तप के द्वारा वह ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन-चिंतन में निरत रहता है। तप के ये प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बड़े मूल्यवान है। इनमें बाहरी तपन नहीं है। लोगों को चमत्कृत करके प्रसिद्धि प्राप्त करने की अभीप्सा नहीं है और व्यर्थता भी नहीं है। शरीर को सताने की अपेक्षा उसे हल्का-फुल्का एवं विकार-विवर्जित बनाने में जो तपस्या सहायक हो, वही करने का इंगित इन तपों में है। ये तप बाहर से दीखते भी नहीं है, साधक इन्हें प्रदर्शित भी नहीं करता। सूर्य जैसे अपनी किरणों से संसार को प्रकाश के साथ-साथ जीवन देता है, वैसे ही इन द्वादश तपों से साधक अपने में तेज का अनुभव करता है और इस तेज से वातावरण को आलोक मिलता है। ये तप साधक के शरीर-दीप को प्रज्वलित रखते है। तपोमय शरीर का दीपक बुझता नहीं हैं, उसका उत्सर्ग होता है, जो समूचे वातावरण में एक प्रकाश-किरण छोड़ जाता है।
जैन-साधना में आयु की मर्यादा का कोई प्रावधान नहीं है। जिस मानव-चेतना में ज्ञान-किरण का उदय हो जाता है, वैराग्य की उर्मि तरंगायमान होने लगती है, वह साधना के पथ पर आरोहण कर जाता है। अनेक उदाहरणों में हम देखते ही हैं कि अल्पवय में ही अनेक पुरुष ज्ञानी एवं संत हो गये हैं। ज्ञान आत्मिक ऊर्जा है, वह पोथी-पुस्तकों की चीज नहीं है। कबीर तो कह ही गये है कि पोथी पढ़-पढ़ कर तो संसार मर ही गया, कोई पण्डित नहीं हुआ। एक तरुण भी श्रमण हो सकता है और एक वृद्ध भी माया-जाल में उलझा रह जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनाथी मुनि की एक ऐसी ही प्रतीक-कथा है। जैन आगमों में अनेक तरुण तपस्वियों की गाथाएँ अंकित है जो माता-पिता को घर में छोड़कर वन की ओर प्रस्थान कर
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कर्म की सलाह (प्रभाव) किसे नहीं भोगनी पड़ी हैं?
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