Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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हैं कि हमसे अहिंसा निभ गई। हमारा ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि जिस सभ्यता को हम जी रहे हैं, जिस बाहुल्य को हम भोग रहे हैं, वस्तुओं के एक विशाल सागर में तैर रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय और समाज-व्यवस्था का जो आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक ढाँचा हमने खड़ा कर लिया है तथा मनुष्यों के बीच आपस में जितना भेद-जाति का, सम्प्रदाय का, रंग का, धर्म का, धन का, सत्ता का और संस्कृति का खड़ा कर लिया है-इस सबने मनुष्य को पारे की तरह बिखेर दिया है। ऐसा टूटा हुआ मनुष्य कौन-सी अहिंसा जीयेगा? वह तो अपनी ही चिंता में पड़ा है। उसे अब अपने सिवाय कुछ दूसरा सूझता ही नहीं। लेकिन अहिंसा का तो एक अलग क्षेत्र है। वह संवेदना और सह-अस्तित्व के रथपर चढ़कर ही आयेगी। आप प्यार करते हैं तो मेरा क्रोध गलता है। आप कुछ छोड़ रहे हैं तो मेरा स्वार्थ भी टूटता है, मैं आपकी सहनशीलता के आगे परास्त हूँ। अहिंसा को अपरिग्रह का, त्याग का, संयम का, प्रेम का, करुणा का, परिश्रम का, और निज की तृष्णा को समेटलेने का कड़ा धरातल चाहिए। लेकिन इन्सान अपनी आधुनिक सभ्यता को इस धरातल पर खड़ा नहीं रख सका। उसने जो पटरियाँ बिछाई हैं वे स्वार्थ की और अहंकार की है-इन पटरियों पर अहिंसा की रेल कैसे दौड़ेगी?
दूसरी ओर, हमारी वस्तु-निष्ठा ने और आरामदेह जिन्दगी की चाह ने वस्तुओं का एक महासागर रच लिया है। वस्तु, सम्पदा और धन को अपना आराध्य देव घोषित करके मनुष्य ने जिस हिंसा को जन्म दिया है वह बहुत विषैली है। धीरे-धीरे उसने पूरी सृष्टि पर अपना विष फैलाया है। वैज्ञानिकों को चिंता हुई है कि यदि इसी रफ्तार से मनुष्य अपने उपभोग के लिए, धरती की सम्पदा को लूटता रहा तथा अपनी आरामदेह जिन्दगी के लिए अनन्त वस्तुओं की उत्पादन प्रक्रिया में इस पूरे जगत को अनेकानेक प्रदूषणों से ढंकता रहा तो जीवन टूट जायगा। आदमी के रहन-सहन की आधुनिक सभ्यता के साथ जुड़ी हिंसा हमारी धमनियों में इस कहर प्रवाहित हुई है कि इसे रोकने के लिए एक महा-पुरुषार्थ की जरुरत है। एक आदमी के लिए यह बहुत आसान है कि वह अपनी थाली से मांस का टुकड़ा अलग कर दे और अपने पैर के नीचे दबकर मर जाने वाली चींटी को बचा ले जाय। लेकिन बेशुमार हिंसा को जन्म देने वाली हमारी उत्पादन प्रक्रिया का क्या होगा? वह तो वस्तु के गर्भ में जाकर बैठ गई है। जिस यंत्रीकरण पर मनुष्य को नाज है, अपनी विज्ञान प्रगति पर उसे गर्व है और बिजली की सहायता से उसने अपने ही लिए उपभोग की वस्तुओं का जो जाल बुना है-इन सबने व्यापक हिंसा को जन्म दिया है। क्या-क्या छोड़ेंगे आप? यह संभव नहीं रह गया है कि हम वल्कल पर उतर आयें और पाषाण-युग की सभ्यता को स्वीकार लें।
बात बहुत साफ है मित्रों, कि हमसे अपनी एफ्लूएन्सी-अपना बाहुल्य छोड़ते नहीं बनेगा। उपभोग की जिस ऊँचाई पर हम जा खड़े हुए है वहाँ से बहुत नीचे उतरते भी नहीं बनेगा। एक अजीब आकांक्षा हमें घेरे हुए है-जो हमें मिल गया है उसे छोड़ देने का तो सवाल ही नहीं, पर जो नहीं मिल पाया है उसे प्राप्त करने की धुन में हम लगे हैं। और अपने घर में, समाज में, क्षेत्र में ऐसा जीवन जी रहे हैं जो अहिंसा से बहुत दूर चला गया है।
फिर भी अहिंसा हमसे फेंकी नहीं जायगी-वह तो मनुष्य के जीवन की तर्ज है। उसके रक्त में बिंधी है। एक अजीब उलझन में आज का मनुष्य पड़ गया है। अहिंसा छोड़ नहीं सकता और हिंसा स्वीकार नहीं सकता। साथ ही साथ जीवन उसका टिक गया है हिंसा के उपकरणों
विश्व में, तीनों लोकों में यदि कोई महामंत्र है तो वह हैं मन को वश में करना।
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