Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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और ध्यानी इत्यादि अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत कर यह बतलाया गया है कि जीव को अपने जीवन का महत्व समझना चाहिए। ज्ञानी पुरुष दुर्लभ है। वह सब जगह पैदा नहीं होता |३२ ऐसे अनेकों नीतियुक्त वचनों का कथन तीनों ग्रन्थों में मिल जाता है। इन तीनों की समन्वयात्मक द्दष्टि है। उत्तराध्ययन स्याद्वाद एवं अनेकान्तदृष्टि से वस्तुतत्व को समझने के लिए प्रेरणा देता है। केवल यही बात नहीं है, अपितु उन विभिन्न आदर्शों को तर्क-वितर्क एवं उपदेशात्मक शैली से बतला दिया कि जिसे सर्वसाधारण पढ़कर या गम्भीर रूप से सुनकर आत्म-कल्याण की भावना को पैदा कर लें। गीता कर्मयोग की शिक्षा अन्त तक देती है, और व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का बोध कराती है। धम्मपद सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है "न हि वेरन वेरानि सम्मन्तीध कुदा:चन।" वाली युक्ति मानव कर्तव्य का बोध दिलाती है। गीता "स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरः।" और उत्तराध्ययन "अप्पणा सच्चमेसेच्चा, मित्तिं भूएहिं कप्पये।" अत: तीनों का प्रतिपाद्य विषय आत्मकर्तव्य ही है। प्रत्येक मानव का लक्ष्य कर्तव्य को जानना है।
सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल १ गीता अ० २/३०-३१ देही नित्यभवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमहंसि। स्वधर्ममपि चावेश्य न विकम्पितुमर्हसि। धाद्धि युद्धाच्छे योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
२ वही अ०२/४७-४८ ३ उत्तराध्ययन ३/६
• पल-पल जो जागृत रहे, वह साधू। निद्रा में भी जो जागृत हो वह साधु जब संसार के अनेक प्राणी सुख-दु:ख की अनन्त कल्पनाओं के बीच थककर सो गये होते है तब साधू-जन सभी प्रकार के सुख-दुःख की विभूति लगा कर आत्म-सचेत दशा में विचरण करता रहता है। इनकी निद्रा शरीर की थकावट उतरने हेतु नही, मात्र कायस्वभाव होती है।
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मानव जब अत्यंत प्रसन्न होता है तब उसकी अंतरात्मा भी गाती रहती है।
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