Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। उन सबका कथन एक साथ तो सम्भव नहीं है- "योंकि शब्दो की शक्ति सीमित है, वे एक समय में एक ही धर्म को कह सकते हैं। अत: अनन्त धर्मो में एक विवक्षित धर्म मुख्य होता है जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है, बाकी अन्य सभी धर्म गौण होते हैं, क्योंकि उनके सम्बन्ध में अभी कुछ नहीं कहा जा रहा है। यह मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा नहीं, किन्तु वक्ता की इच्छानुसार होती है। विवक्षा अविवक्षा वाणी के छे भेद हैं, वस्तु के नहीं। वस्तु में तो सभी धर्म प्रति समय अपनी पूरी हैसियत से विद्यमान रहते हैं, उनमें मुख्य - गौण का कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि वस्तु में तो उन परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों को अपने में धारण करने की शक्ति है, वे तो उस वस्तु में अनादिकाल से विद्यमान हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। उनको एक साथ कहने की सामर्थ्य वाणी में न होने से वाणी में विवक्षा अविवक्षा और मुख्य-गौण का भेद पाया जाता है।
वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मो को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं हैं। उसमें नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जाएगा तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। अत: जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे तब श्रोता यह समझ सकता हैं कि वस्तुनित्य ही है अनित्य नहीं। अत: हम किसी अपेक्षा नित्य भी है, ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ध्यान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है, भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। अत: वाणी में स्यात्-पद का प्रयोग आवश्यक है, स्यात्-पद् अविवक्षित धर्मो को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में स्याद्वाद का अर्थ इस प्रकार दिया है:
"अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को। मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता के अन्य धर्म भी गौण रुप से स्वीकार होते रहैं, उनका निषेध न होने पाये, इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता हैं।"
कुछ विचारक कहते हैं कि स्यावाद शैली में "भी" का प्रयोग है, "ही" का नहीं। उन्हें "भी' में समन्वय की सुगंध और "ही" में हठ की दुर्गन्ध आती है, पर यह उनका बौद्धिक भ्रम ही है। स्यावाद शैली मे जितनी आवश्यकता "भी" के प्रयोग की है, उससे कम आवश्यकता "ही" के प्रयोग की नहीं। "भी" और "ही" का समान महत्व है।
'भी" समन्वय की सूचक न होकर 'अनुक्त की सत्ता की सूचक है और "ही" आग्रह की सूचक न होकर "दृढता' की सूचक है। इनके प्रयोग का एक तरीका है और वह है-जहाँ अपेक्षा न बताकर मात्र यह कहा जाता है कि "किसी अपेक्षा" वहाँ "भी" लगाना जरुरी है
और जहाँ अपेक्षा स्पष्ट बता दी जाती है वहाँ "ही" लगाना अनिवार्य है। जैसे- प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी है। यदि इसी को हम अपेक्षा लगाकर कहेंगे तो इस प्रकार कहना होगा कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य ही है और पर्याय
स्मृति के चित्र, मन की दुनिया है। मन की दुनिया स्पष्ट हुए बिना स्वच्छता आती नहीं हैं।
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