Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
View full book text
________________
ही द्वेष-वैमनस्य तथा मनमुटाव लोगों के दिलों में भरा रहता है जो किसी भी समय प्रतिकूल हवा पाते ही क्रोध, शत्रुता, कलह, संघर्ष तथा हिंसा में परिवर्तित हो जाता है। अनेकान्तवाद -ऐसा प्रेरक तत्व है जिसको अंगीकार कर हम अनेक समस्याओं, प्रश्नों, उलझनों को सुलझा सकते है। अनेकान्तवाद विचारों के प्रति अनाग्रही दृष्टि का नाम है। वस्तु के अनन्त धर्मात्मक गुणों के प्रति विद्येयात्मक समन्वित दृष्टि अनेकान्त कहलाती है। हमें वस्तुस्वरुप को सापेक्षता में देखना है। हम मताग्रहग्रस्त होकर वस्तुस्वरुप देखते है, विचार को देखते है, व्यक्ति को देखते है। पूर्वाग्रह के कारण विषमता उत्पन्न होती है। हम यदि पूर्वाग्रह छोडकर दूसरे के मत-दृष्टिकोण को जानने-समझने की कोशिश करे तो समाज में समतावादी वातावरण बनाया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है(१) दूसरों के विचारों को सहानुभूति से सुने, (२) दूसरे के मत के प्रति सहिष्णु बने, (३) अपने विचार को शिष्टता से प्रस्तुत करे, (४) अपने मत के प्रति दुराग्रह न रखे, (५) व्यवहार मे विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाऐं।
विभिन्न मतों- दृष्टिकोणों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करना अनेकान्तवादी का परम धर्म है। यहीं से वैचारिक धरातल पर हम समरसता और सहिष्णुता की भावना प्राप्त कर सकते है। जैनदर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद समन्वयवाद पर आधारित है, अत: समाज में हम इनके आधार पर समतावादी समाज की संरचना करने में अपने कदम आगे बढ़ा सकते है। हमारी युवाशक्ति जो भटकी हुई है, पथभ्रष्ट है, विदृष्टि-ग्रस्त है, उसे सम्यक् दृष्टि अनेकान्तवाद द्वारा दी जा सकती है। अपनी बात को हम यों कह सकते है कि अहिंसा द्वारा हम सहअस्तित्व विश्व-बन्धुत्व की भावना जाग्रत की जा सकती है, मैत्री के राजमार्ग बनाये जा सकते है। वैर-वैमनस्य को मिटाकर प्रेम के, दया के, करुणा व सहानुभूत्व कर सकते है। अहिंसा के एक तरफ अनेकान्तवाद और दूसरी तरफ स्याद्राद स्थित है
यं लोका असकृन्नमन्ति ददते यस्मै विनम्रांजलि, मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिंसाभिध। नित्यं चारधारणमिव बुधा : यस्यैकपार्श्व महान,
स्याद्वाद : परतो बभूवतु स्थानकान्तकल्पद्र मः ।। जैनदर्शन के अनुसार समाज में समतावादी भावना के लिए आर्थिक विषमता को, परिग्रहवाद को समाप्त करना आवश्यक है। जमाखोरी, रिश्वत, मिलावट, तस्करी, चोरी डकैती सब परिग्रहवादी भावना के अलग-अलग मुखौटे है और यह मुखौटे हमे सर्वत्र नजर आते है। इनके द्वारा हिंसावृत्ति को, भ्रष्टाचार को, अनैतिकता को बल मिलता है। इसी दुष्प्रवृत्ति के कारण दहेज जैसा अजगर अपना रुप अधिकाधिक विकराल बनाता जा रहा है। अनेक कोमलांगी नववधुओं को जिंदा जलाया जाता है, उन्हें अमानवीय यातनाओं का शिकार बनाया जा सकता है। कानून बना है देहेजविरोधी, लेकिन मनुष्य की अर्थलिप्सा पर रोक नहीं लग सकी। परिग्रह को जैनदर्शन में 'मूर्छा' कहा गया है,५ यही ममत्व की, आसक्ती की, लोभ की, मोह की भावना है। 'दशवैकाक्तिकसूत्र' में आसक्ति को ही परिग्रह माना गया है।२६
लोभ मैत्री, विनम्रता, प्रेम आदि सदगुणों का नाश कर डालता है। २० "मोहांध व्यक्ति को २५. तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) ७/१७, २६. दशवैकालि
मन के दुर्भाव रुप अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी से काया और आत्मा दग्ध हो जाती है, मन भभक कर जल उठता है।
२०९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org