Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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अनुभव गम्य अनुभुति- श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन
लेखिका - साध्वी रत्नरेखा
यह एक सनातन सत्य है कि भक्ति संगीत मानव मात्र को आकर्षित करता रहा है। भक्ति संगीत के अनेक रूप हैं। भक्ति में समर्पण भाव हैं। आत्मीय भावोल्लास को प्रकटीकरण करने का एक अमोघ साधन हैं। साधन ही साध्य तक पहुँचाता हैं। विश्व के प्रत्येक धर्म आम्नाय में भक्ति मार्ग सर्वोच्च रहा हैं। जैन इतिहास में महान आध्यात्म योगी श्री आनंदधन, श्रियानंद और श्री यशोविजयजी जैसे महान तपः पुत आत्माओं ने भक्ति को चरम रूप दिया हैं। श्री आनंदधर्म ने परमात्मा को प्रियतम के रूप में अलंकृत किया है।
शांति जिनेश्वर साहिबा घर आओरे दोला
मुझ सरिखी तुज लाख है तु ही मुझ यमोला। उपरोक्त भावों से यही प्रकट होता हैं कि आत्मिय भावों से किया गया अर्पण ही शुद्ध भक्ति हैं। भक्त, भक्ति और भगवान का यह संगम अपूर्व हैं। भक्त जब भक्ति में खो जाता है तभी सोहं की प्रतिध्वनी गुंजीत होती हैं। परमात्म भक्ति के सामर्थ्य से ही श्रीमती ने सांप को फूल की माला के रूप में परिवर्तीत कर दिया। मिरा ने विष को अमृत बना दिया। भक्ति एक परमतत्व हैं।
भक्ति की अपूर्व शक्ति आज भी विद्यमान हैं। इसके साक्षात अनुभव का प्रमाण है श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन यह एक आद्यक्रम रहा हैं कि प्रत्येक तिर्थंकर के अधिष्ठायक और अधिष्ठायिका रहे हैं। परमपुरुषायानी श्री पार्श्वनाथ प्रभु को जब कमठ ने भयंकर जल उपसर्ग किया तब श्री धरणेन्द्र एवं श्री पद्मावती माता ने स्वयं अवधि ज्ञान से देखा कि जिस पार्श्वकुमार ने काष्ट मे जलते हुए हमे बचाया था और नमस्कार महामंत्र का श्रवण करने से ही हम पातालवासी के देव-देवी बने हैं। उपकारों को स्मरण करते हुए जल में कमलासन कर नाग का छात्र बनाकर प्रभु सेवा में उपस्थित हुए।
श्री पार्श्वनाथ प्रभु को जब केवल ज्ञान और केवल दर्शन उपलब्ध हुए तब श्री पद्मावती देवी अधिष्ठायिका के रूप में एकावतारी, सम्यकत्व धारी जिनशासन रक्षिका के रूप में महिमा मंडित हुई।
कालचक्र का यह अनंत प्रवाह अविराम गति लिए प्रवाहित होता रहा हैं। इस बीच अनेक सिद्ध पुरुष हुए।
युग श्रमण भगवन्त हुए जिन्होंने आत्मसिद्धी के द्वारा अनेक चमत्कारिक सिध्धियां प्राप्त की हैं। श्रमण भगवंत महावीर की धर्मपरंपरा में भद्रबाहु स्वामी, नवांगी टिकाकार, अभय देव सुरिजि
और जिनप्रभ सुरिजी, हरिसुरिजी, श्री हेमचन्द्राचार्य, हरिभद्र सुरिजी हुए हैं जिन्होने अपनी आत्मिय शक्ति या दैविक शक्ति से तत्कालिन समय के सम्राट, बादशाह आदि को तो प्रभावित किया ही है इसी के साथ शक्ति का सम्यक उपयोग जिन शासन की अभूतपूर्व प्रभावनों के लिए किया हैं। इस जगत के आत्मोत्थान के लिए विविध आयोजनों से भारतीय संस्कृति की धर्म प्राण जनता में श्रद्धा रुपी दिए को पज्जवलित कर रखा हैं।
नयन, यह अंतर के भाव बताने वाला दर्पण है।
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