Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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व्यक्ति की दृष्टि का आभास है, मिथ्या दृष्टिकोण है। वह वास्तविक सचाई नहीं है। जैन दर्शन ने इसे वास्तविक सचाई माना है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और अनंत आत्माएं है। यह अव्यावहारिक नहीं, काल्पनिक नहीं, आभास नहीं किन्तु वास्तविक सचाई है। आत्मवादः व्यावहारिक पहल
व्यावहारिक पहलू से देखें तो एकात्मवाद से एकता फलित होती है सब अत्मा एक हैं इस अद्वैतवाद में एकता की साधना फलित हुई। कहा गया सबको एक ही अनुभव करें। प्राणी को ईश्वरीय अंश मानने वाले कहते है हम सब एक हीं पिता के पुत्र हैं। हमारा एक ही परिवार है यह बात बहुत अच्छी है, पर व्यवहार में कोई भी व्यक्ति अपने आपको एक पिता का पुत्र नहीं मानता। सब बंटे हुए है इसीलिए हिंसा, आतंक, अपराध, दूसरों को सताना और दूसरों के प्रति क्रूर व्यवहार करना चल रहा है एक ही पिता के पुत्र हों तो यह सब नहीं चलता सचाई यह है एक बाप के चार बेटों में भी विरोध और विग्रह चलता है। यह दर्शन की बात जीवन में अभी तक उतरी नहीं है जैन दर्शन के अनुसार एकत्व की बात फलित नहीं होती 'हम सब एक है यह फलित नहीं होता। उसके अनुसार फलित होता है 'हम सब समान हैं किन्तु व्यवहार में यह भी फलित नहीं होता। जैन दर्शन को मानने वाले भी समानता के आधार पर व्यवहार नहीं करते सब आत्माएं समान हैं, किन्तु व्यक्ति का व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है। उसमें बहुत विषमता है और सारा व्यवहार विषमतापूर्ण चल रहा है।
आत्मवादः दार्शनिक पहलू
व्यवहारिक पहलू पर एकात्मवाद और अनेकात्मवाद दोनों में किसी को भी बहुत सफलता मिली है, ऐसा नहीं कहा जा सकता किसी व्यक्ति ने भले ही भावना के स्वर में कह दिया- मैं तब तक मोक्ष जाना नहीं चाहता, जब तक सब मोक्ष नहीं चले जाते। कोई-कोई समानता के आधार पर ऐसा व्यवहार कर सकता है। यह एक आपवादिक स्वर हो सकता है किन्तु इसके आधार पर समाज में न तो एकत्व का प्रयोग हुआ और न समत्व का प्रयोग हुआ। व्यावहारिक दृष्टि से समाज में कोई परिवर्तन नहीं लगता। अनेक आत्मा मानने से या प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता मानने से स्वार्थवाद पनपा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता और एक आत्मा मानने से परमार्थवाद पनपा, ऐसा भी नही कहा जा सकता।
प्रश्न दार्शनिक पहलू का है। उसके संदर्भ में कहा जा सकता है एकात्मवाद की व्याख्या काफी जटिल है, व्यवहार के साथ उसकी संगति बिठाने में काफी जटिलताएँ है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है, अनेकात्मवाद का यह सिध्दान्त दार्शनिक प्रक्रिया की दृष्टि से सरल और स्पष्ट अनुभव देने वाला है।
मै कौन हूं?
आत्मा के बारे में इन सारे सिध्दान्तों को जानने के बाद जो निष्कर्ष आएगा, जो एक प्रश्न उभरेगा, वह होगा मैं कौन हूं? जब तक आत्मा के इतने पहलुओं को नही जान लिया जाता, तब तक 'मैं कौन हूं' -यह बात समझ मे नहीं आती और इसका उत्तर भी नहीं दिया जा सकता। साधना का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है 'मैं कौन हूं। साधना के इस प्रश्न को समाहित करने के लिए दर्शन के इतने सारे प्रश्नों को समझना जरुरी है और इन प्रश्नों को समझने के बाद ही व्यक्ति अपने आपको यह उत्तर दे सकता है- 'मैं कौन हूं?
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लातों के अधिकारी कभी भी बातों से नहीं मानते।
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