Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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जागृत रहनी चाहिए, किसी से पूछने की जरुरत नहीं, कि मैं चल तो रहा हूँ, पर वास्तव में मैं क्या चल ही रहा हैं? अपनी गति पर, अपनी मति पर, और अपनी स्थिति पर, कभी सन्देह नहीं होना चाहिए। सम्यकू-दर्शन और मिथ्या-दर्शन :
मैं अपनी कहूँ, कि मेरे मन में कभी ऐसे संकल्प नहीं जगते, कि मैं भव्य हैं या नहीं? सम्यक्-दृष्टि हुँ या नहीं? चूँकि मेरे मन में श्रद्धा है, विश्वास है, अपनी गति, मति एवं स्थिति पर आस्था है। मैं जो कुछ साधना कर रहा हूँ, उसकी रसानुभूति भी यदा-कदा आत्मा को आप्लावित कर ही देती है।
वस्तुत: सम्यक्-दर्शन की अनुभूति कोई आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है। सम्यक्-दर्शन और मिथ्या-दर्शन क्या चीज है? यह आप एक उदाहरण से समझ सकते है। एक अहोरात्र-रात-दिन में एक ओर प्रकाश रहता है, उजाला रहता है, और दुसरी ओर अन्धकार, घनघोर अन्धेरा। आत्मा एक अहोरात्र की स्थिति में है, जहाँ ज्ञान का प्रकाश है, वहाँ सम्यक्-दर्शन है; जहाँ उस पर आवरण आ गया, विकृति आ गई है, वहाँ वह मिथ्या-दर्शन हो गया। जब सम्यक्-दर्शन की स्थिति में रहते है, तो दिन के प्रकाश की स्थिति और जब मिथ्यात्व की स्थिति में जाते है, तो अन्धकारमय रात्रि की स्थिति आ जाती है। मिथ्यात्व की रात्रि जब समाप्त होती है, तो सम्यक्-दर्शन का सुनहरा प्रभात दिन के उदयाचल पर विहँस उठता है।
मिथ्यात्व अज्ञान है, और अज्ञान एक बन्धन है। जब तक यह बन्धन नहीं टूटता, आत्मा मुक्त नहीं हो सकता। स्व-पर का भेद, जड़-चेतन की पहचान जब हो जाती है, तो जीवन में जो सुख-दु:ख आते है, उनमें राग-द्वेष एवं मोह उत्पन्न नहीं होता, आसक्ति का भाव नहीं जगता। सम्यक्-दृष्टि भोजन करता हुआ भी भोग करता हुआ भी, उसके बन्धन से मुक्त क्यों रहता है? जब कि मिथ्यात्वी, भोजन बिना किए भी, भोग भोगे बिना भी, उसके संकल्प मात्र से कर्म बांध लेता है। सम्यक्-दृष्टि बन्धन के स्वरुप को समझता है, इसलिए वह संसार के भोगों के बीच रहकर भी उन में तन्मय नहीं होता, आसक्त नहीं रहता। वह वस्तु का, पदार्थों का उपभोग करता नहीं, पर उपभोग होता है। वह भोग में रस नहीं लेता यह साधना की कला है, सम्यकत्व की कला है। सम्यक्-दृष्टि और मिथ्या-दृष्टि के जीवन-दर्शन में यही मौलिक अन्तर है। सम्यक्-दृष्टि आत्म-परक दृष्टिकोण रखता है, वहाँ मिथ्या-दृष्टि वस्तु परक!
सम्यक्-दृष्टि की मुक्ति उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाती है, जिस क्षण में वह साधना के क्षेत्र में चरण बढाता है। वह शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार आत्मा को पहचानता है, और उसी लक्ष्य की ओर श्रद्धा एवं विश्वास के साथ, साधना के रस की अनुभूति करता हुआ निरन्तर चलता रहता है। ज्ञानमयो हि आत्मा :
बात यह है, कि जब मिथ्यात्व के संकल्प टूटने लगते हैं, तो आत्मा में विशेष प्रकार की जागृति होती है, अनुभूति होती है। यह जागति और अनुभूति बाहर से नहीं आती, आत्मा में ही सुप्त पड़ी थी, आवरणों के अभेद्य अन्धकार में छुपी थी, जब अन्धकार का भेदन हो गया, वह समाप्त हो गया, तो वह ज्योति प्रकट हो गई, आत्मा का मूल स्वरुप ज्ञात हो गया। __मैं एक बार हरिद्वार गुरुकुल में गया था। वह बहुत बड़ा विद्या-केन्द्र है, दर्शन-शास्त्र का
शं के विचित्र भूत से ही जीवन और जगत दोनों ही हलाहल हो जाते है।
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