Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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जड़ की मैत्री जड़ के साथ होती है। मूर्ख की दोस्ती मूर्ख के साथ होती हैं। विद्वान मूर्ख से मैत्री कभी नहीं करता। अतः इन कर्मों का अधिष्ठान कार्मण शरीर है। उसीके साथ उनका सम्बन्ध होता है। कर्म का कर्म के साथ बन्धन होता है। प्रश्न यह है कि जब कर्म के साथ ही कर्म का बन्धन होता है, तो फिर आत्मा उसके बन्धन में क्यों आबध्द होता है?
कल्पना कीजिए आपने एक गाय के गले में रस्सा डाल कर उसे बाँध लिया। जब रस्से से गाय को बांधेगे, तो उसमें गांठ लगाऐंगे ही आपने गाय के गले में रस्सा डाला और वह बन्ध गई। किन्तु, गाँठ कहाँ लगी ? गाय के गले में तो गांठ नहीं लगी। रस्सा गले में आया, फिर भी गला स्वतन्त्र है। चमड़ी में किसी प्रकार की गांठ नहीं लगी तो इसका मतलब यह हुआ, कि गांठ गाय के साथ नहीं, किन्तु रस्से में रस्से के साथ लगी, और गाय बच गई। यही स्थिति आत्मा की है। आत्मा और कर्म का संबन्ध भी इसी तरह का है। आत्मा के साथ कर्म की गांठ नहीं लगी है। कर्म की कर्म के साथ गांठ लगी है माया की माया के साथ गांठ लगी है प्रकृति के साथ प्रकृति का ही बन्धन हुआ है में फंस गया है, जैसे रस्से में गाय का गला ।
परन्तु
आत्मा उस बन्धन
आत्मा अरूपी है और कर्म रूपी है आत्मा चेतन है और कर्म जड़ अरूपी रूपी के साथ कभी सम्बन्ध नहीं करता। अतः चेतना का जड़ के साथ संबन्ध नहीं होता। विचित्र बात तो यह है कि कर्म के साथ कर्म के बन्धन में आत्मा बन्ध रहा है और जब गाय के गले में पड़ी हुई रस्सी की गांठ खुल जाती है, तो वह बन्धन मुक्त हो जाती है। इसी प्रकार से कर्म की गांठ, जो कर्म के साथ लगी हुई है, उसे खोल कर अलग कर दो, तो आत्मा स्वतन्त्र और कर्म बन्धन से मुक्त हो जाएगी।
इस उदाहरण से आत्मा और कर्म का बन्धन आपकी समझ में आया होगा मुक्ति प्राप्त करने का क्या अर्थ है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है। आत्मा तो प्रत्येक स्थिति में मुक्त है, किन्तु उसने बाह्य बन्धन को अपना मान लिया है। कर्म के बन्धन को अपने आपमें स्वीकार कर लिया है। इसलिए वह कर्म से आबद्ध है और प्रतिक्षण नए कर्मों को बांध रहा है। जब वह अपने स्वरुप को समझ लेता है, तब वह यह अनुभव करने लगता है, कि यह बन्धन मेरा अपना नहीं है। और उसी क्षण उसके मन में, आवरण से मुक्त होने की भावना जागृत होती है और तभी मुक्ति प्राप्त करने की बात उठती है। जड़-चेतन की भिन्नता:
मुक्ति की बात ही ज्ञान प्राप्ति की बात है ज्ञान तो आत्मा में विद्यमान है, उसकी प्राप्ति कैसी? व्यवहार में हम प्राप्ति शब्द का प्रयोग करते है, उनको अभिप्राय यही है कि ज्ञान पर जो बाह्य आवरण आ गया है, उसको हटा देना। जब आवरण हट जाएगा, तो उस आवरण के भीतर विद्यमान ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाएगा जब तक ज्ञान पर आवरण रहता है, एक भ्रान्ति बनी रहती है, आत्मा स्व पर को समझ नहीं पाता, सत्य-असत्य का बोध नहीं कर पाता, बस यही अज्ञान है, तात्विक भाषा में यह मिथ्यात्व है पर में स्व- आत्मा को समझना, और स्व में पर को समझना, यह भ्रान्ति है। नित्य को अनित्य और अनित्य को नित्य समझना, चैतन्य के गुण को अपना गुण नहीं समझकर अचैतन्य का गुण समझना और शरीर के गुण-धर्म को अपने ऊपर थोप लेना, यहीं तो भ्रम है, मिथ्यात्व है।
कभी-कभी पहुँचे हुए साधक भी कह देते है, कि में रोगी हूं मैं निरोग हूँ, मैं सुखी
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कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहाँ दृढ होती है, वहां मन में उस्ताह की ओट में नैराश्य आता ही नहीं है।
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