Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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विरल व्यक्तित्व के धनी "कोंकण केशरी" मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी
- मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी
सृष्टि का शाश्वत नियम है कि वह अनादिकाल से समय - समय पर महान विभूतियों को धराधाम पर अवतरित करती रहती है। इस चौबीसी में श्रमण भगवान महावीर के धर्म तीर्थ में अनके पूज्य आचार्य एवं श्रमण - श्रमणियां हुए और होते रहेंगे। स्वयं की आत्म -साधना के साथ जन-हिताय की मंगल भावना से जन-जन को नई दिशा प्रदान करने वाले अनके श्रमण भगवंत हुए है।
यह भी शाश्वत सत्य है कि जन्म से कोई व्यक्ति महान नहीं होता बल्कि अपने कतृत्व से ही व्यक्ति महान बनता है। आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा बनने का जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। भारत की शष्य श्यामला मालव भूमि के रतलाम शहर में विक्रम संवत् २०१३ में श्री मोतीलालजी चुनीलालजी गुगलिया श्री धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी की रत्न-कुक्षी से चैत्र कृष्णा तेरस को एक बालक का जन्म हुआ - माता-पिता ने नाम रखा "अनोखी'। अनोखी के सारे काम अनोखे ही होते थे। छठ्ठी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद स्कूल छोड़कर प्रकृति के अध्ययन में लग गये। समय सहज गति से व्यतीत होता रहा और बालक अनोखी १६ वर्ष का युवक हो गया। एक दिन चैत्र शुक्ला पुर्णिमा को अनोखी श्री शंत्रुजय तीर्थ के नाम से नामांकित श्री करमदी तीर्थ की यात्रा पर गये। तीर्थ दर्शन से लौटते समय अचानक एक प्रभावशाली पूज्य संत के दर्शन हुए और युवक अनोखी ने श्रद्धा से उनके चरण-स्पर्श किये।
भव्य आकर्षक व्यक्तित्व, स्मित वदन, वात्सल्यपूर्ण नैत्र अनोखी को आकर्षित कर रहे थे। वे उस महान व्यक्तित्व के आदेश से उनके साथ हो गये। यह महान व्यक्तित्व था पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी महाराज का। आपने अनोखी के हृदय की भावनाओं को जान लिया और पिताश्री मोतीलालजी एवं मातुश्री कमलादेवी से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर अनोखी के साथ रतलाम से प्रस्थान कर गये। वि.सं. २०२९ में पूज्य मुनिश्री लक्ष्मण विजयजी का चातुर्मास कुशलगढ़ हुआ। वैरागी अनोखी के लिए यह चातुर्मास ज्ञान, साधना के साथ-साथ अन्य अनुभवों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बना। चातुर्मास के पश्चात मालव-प्रांत के अनेक नगरों में विचरण करते हुए पूज्य प्रवर आलीराजपुर पधारे। अनोखी छाया की तरह उनके साथ था। और वैराग्य भावना दृढ़ बन जाने से उसने दीक्षा शीघ्र प्रदान करने की भावना व्यक्त की।
वैराग्य भावों की उत्कृष्ठता देखते हुए वि.सं. २०३० जेष्ठ कृष्णा - २, दिनांक १९-५-७३ को श्री डूंगरमलजी गेंदालालजी तथा श्री जयंतीलालजी रतिचंदजी पोरवाल की ओर से भव्य पंचालिका महोत्सव प्रारम्भ हुआ। वि.सं. २०३० जेष्ठ कृष्णा ६, बुधवार दि. २३ मई ७३ को हजारों की जनमेदिनी के बीच विजय मुहूर्त में पूज्य मुनिराज श्री लक्ष्मण विजयजी "शीतल' के कर-कमलों से दीक्षित होकर अनोखी मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजय बन गये। जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हो गया। मुनिश्री लेखेन्द्र विजयजी ने प्रथम चातुर्मास गुरु सेवा में रहते हुए लक्ष्मणी तीर्थ में किया। गुरुदेव के पावन सान्निध्य में आध्यात्मिक एवं आत्मिक दृष्टि की
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मैले मन के एक-दो नही अनेकानेक स्वरुप होते है।
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