Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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इतिहास सत्य का उद्गाता है!
वस्तुत: जैन श्रमण परम्परा की दृष्टि से १७ वी, १८ वीं और १९ वीं शताब्दियों को • एक ऐसा संक्रमण काल माना जाता है। जब मुनि धर्म पालन में विसंगतियां पैदा हई, तर्कवितर्क हुए, वाद-विवाद हुए, किन्तु साथ ही तत्वबोध भी हुआ
इसी संक्रमण काल में संवत् १८८३ में भरतपुर (राजस्थान) में एक परम पवित्र जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ। उसे इस भौतिक संसार ने उसके बाल्यकाल में रत्नराज के नाम से जाना पहचाना। "पूत के पाँव पालने में" कहावत के अनुसार बालक रत्नराज की धार्मिक भावनाए, उनकी सत्प्रवृतियां प्रारंभ से ही उजागर होने लगी।
रत्नराज ने शिक्षा पूर्ण कर सांसारिक नियमों का निर्वाह करते हुए अपने बंधु श्री मणिलालजी के साथ देश विदेश में खुब धन अर्जित किया। किन्तु स्वर्जित धन भी रत्नराज के विरक्त मन को न बांध सका। धनोपार्जित सुख सुविधाएं उनके धार्मिक मन को जीत न सकी। उनका मन और भी ज्यादा विरक्त होता चला गया। जब मन में "अगम का दीप बिन बांती, बिन तेल' की भाँति प्रज्वलित हो जाता है, तो विरक्ति का पथ आलोकित होता है। मन रुपी पात्र शिव सुख रुपी स्नेह से (जीव मात्र के कल्याण की भावना से) भर जाता है। रत्नराज ने उस आलोक में अपने गंतव्य की झलक पा लीं। उन्होने अपने जीवन का परम लक्ष्य निश्चित कर लिया।
२० वर्ष की युवावस्था में संवत् १९०३ में रत्नराज ने अपने सुपथ दर्शक, धर्ममार्ग प्रेरक, गुरुदेव की पावनीय निश्रा में श्रमण धर्म अंगीकार किया। अध्ययन, मनन, चिन्तन अध्यवसाय से मन धीरे-धीरे धर्म के रंग में रंगता चला गया। जैसे जैसे धर्म का मर्म आत्मस्थ होता गया, वैसे वैसे श्रमण जीवन का वास्तविक रुप उनके समक्ष प्रगट हुआ। उन्होने समझ लिया, यति जीवन के नाम पर जो "बनाया" और "चलाया" जा रहा था। वह वस्तुत: श्रमण धर्म नहीं था। इसलिये उन्होने नया संकल्प किया श्रमण धर्म की पुन: वास्तविक स्थापना हेतु उन्होने यति धर्म का क्रियोद्वार कर शुध्द समकित "श्रमण धर्म" को नये युग में प्रविष्ठ किया। यति धर्म के शिथिलाचारी आचरण को समाप्त कर नवीन "श्रमणत्व" (पंच महाव्रत) की पुन: स्थापना करने के साथ वे "श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी" के नाम से जगविख्यात हुए।
इन्ही के पदचिन्हित सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा में इन्ही के परम विनित सुशिष्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के विद्वान शिष्यरत्न एवं तत्कालीन आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचंद्र सूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती श्रमण सूर्य आगमदिवाकर मुनि प्रवर की लक्ष्मण विजयजी 'शीतल' म. सा. ने धर्मक्रांति को समग्र दक्षिण-प्रदेश में फैलाने हेतु त्रिस्तुतिक परम्परा में सर्व प्रथम माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत २०३५ दिनांक १० फरवरी १९७९ को परम पू. दादा गुरुदेव का अदृश्य आशिर्वाद प्राप्त कर पू. आचार्य देव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी की शुभाज्ञा प्राप्त कर अपने दोनों प्रिय शिष्यों- मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी
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दुष्ट-दुर्जन व्यक्ति मरते समय भी, अंतिम क्षण तक अपनी दुष्टता नहीं छोडते.
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