Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur
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सामाजिक रचनात्मक कार्य किये हैं। विक्रम सं. २०३५ में श्री मोहनखेड़ा की पानव भूमि से दक्षिण की ओर प्रयाण किया। यह भी एक उल्लेखनीय प्रसंग है कि सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय त्रिस्तुति आम्नाय के वे ही एक मात्र साधु पुरुष थे जिन्होंने दक्षिण की ओर अपने दोनों शिष्य मुनि श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी को साथ लेकर विहार किया। जैन जगत् के इतिहास के उल्लेखनीय पृष्ठों में भद्रबाह स्वामी ने दक्षिण भारत में धर्मप्रचार किया। परन्तु इस परम्परा में आपही ने दक्षिण प्रान्त में पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के नाम का शंखनाद किया। समय की गति के साथ अब इसी परम्परा के मुनिगण एवं साध्वीगण विचरण कर रहे हैं। समग्र दक्षिण भारत की यात्रा कर सर्वत्र विविध अनुष्ठानों एवं बिजापुर, मैसुर, चित्रदुर्ग, बम्बई आदि नगरों में अनेक उल्लेखनीय चातुर्मास से अभूतपूर्व जिनशासन प्रभावनाएँ की है। जो त्रिस्तुतिक जैन समाज में एक अमिट है।
साधना की दृष्टि से उनका जीवन अक्षरों में बद्ध नहीं कर सकते हैं। इस परम्परा में सर्व प्रथम मां भगवती पद्मावती देवी के चौविस (२४) भुजा के रुप में २०२६ में पालीताणा के चातुर्मास दौरान साक्षात् दर्शन किये। अनेक आत्माओं के जनकल्याण में स्व अर्जित आत्म शक्ति का प्रयोग किया है। उनके द्वारा अभिमंत्रित वासक्षेप की महिमा तत्कालिन समय में उसके अचिन्त्य प्रभाव को अनेक लोगों ने अनुभव किया है। साधना की अप्रतिम शक्ति से उनकी तेजस्विता अपूर्व थी। वाणी का ओज, संयम की पवित्रता, निर्भिकव्यक्तित्त्व एवं स्वतंत्र विचारो की प्रतिपादन शैली भी अनोखी थी।
वि.सं. २०४० को पालीताणा में चातुर्मास किया। आसोज सुदि ८ को पूज्य प्रवर को अपनी महाप्रयाण की निकटता का ज्ञान हो गया। लेकिन उनके हृदय में एक बात की अत्यधिक आत्मप्रसन्नता थी कि उन्हें जाने का गम नहीं था। क्यों कि उनके दोनो शिष्य सर्वांगीण रुप से विकसित हो गये थे। पालीताणा का अंतिम चातुर्मास कर मरुधर भूमि की ओर क्षेत्र स्पर्शना की २०४० में तत्कालिन समय में श्रमण संघ के निर्णय की घोषणा कर पूज्य आचार्य देव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी जी म.सा. को गच्छाधिपति के पद से विभुषित किया गया। विलक्षण प्रतिभा के धनी, कर्म योद्धा धर्म पुरुष पूज्य प्रवरने सौधर्म बृहत् तपोगच्छीय की परम्परा में श्रमण संघ की महत्ता को स्थाई कीर्तिमान देने हेतु अनेक वैचारिक संघर्ष किये। अंतत: उन्होने इसमें सफलता का एहसास किया है। ३० वर्षों तक अनवरत समाज की सेवा करते करते २०४० में चैत्रवदि ९ रविवार २५ मार्च १९८४ को यह परमहंस श्री पार्श्वनाथ प्रभु का स्मरण करता हुआ महाप्रयाण कर गया, अतीत के इतिहास में पूज्य प्रवर एक अध्याय के रुप मे जुड गये ।
महाप्रयाण के पूर्व पूज्य मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी म. ने अपने शिष्यरत्न मुनिश्री लोकेन्द्र विजयजी को सान्त्वना देते हुए कहा था - " मेरे महाप्रयाण के बाद तुम लोक किसी प्रकार से चिंतित मत होना। अब तक मेरे दो हाथ थे, आज से मेरे सहस्त्र हाथ होगे। तुम्हें जब भी उलझन हो, कष्ट हो, या कोई समस्या हो तो मुझे याद कर लेना। मै सदासर्वदा तुम्हारे निकट हैं, और निकट रहूँगा।" सचमुच मुनिप्रवर श्री लक्ष्मण विजयजी म. की छत्रछाया, हर उलझन, हर समस्या में शीतलता, शांति और समाधान प्रदान करती है। यह अनुभव गम्य प्रमाण है। उनका स्मरण सचमुच सुखद एवं प्रेरक है। आपकी पावन स्मृति में आपके दोनों शिष्य रत्न मुनिश्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी म. एवं मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी म. ने श्री "मरुधर शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन महातीर्थ गुरु लक्ष्मण धाम" तथा "श्री पार्श्वपद्मावती शक्तिपीठ गुरुलक्ष्मण ध्यान केन्द्र' जैसी संस्थाओं का निर्माण कर उनकी कीर्ति को चहुं दिशा में प्रसारित किया है।
अपने युग के सूर्य स्व. पूज्य श्री लक्ष्मणविजयजी "शीतलम.सा. की पावन आत्मा को भाव भरा प्रणाम।
क्षत्रीय का सचा श्रृंगार, शौर्य, साहस और त्याग ही है।
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