Book Title: Lavechu Digambar Jain Samaj
Author(s): Zammanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * इति भवति सपूज्य स्तत्प्रसाद प्रबुद्धथै नहिकृत मुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥ अर्थ-अभीष्ट चाहा फल सिद्धिका उपाय सम्यज्ञान सच्चा ज्ञान है और वह शास्त्रके पठन-पाठनसे होता है। शास्त्रकी उत्पत्ति श्रीसर्वज्ञ वीतराग हितोपदेश इन तीन गुणसंयुक्त सत्यवक्ता आप्तसे होती है इसलिये वह परम वीतराग चराचरको जाननेवाले सब प्राणीमात्रके हितका उपदेश करनेवाले श्री अरहन्त आत ही परम पूज्य हैं। उस समीचीन निर्मल ज्ञानकी प्राप्तिके लिये आदरणीय हैं, आदर करने योग्य हैं क्योंकि ( पूज्यादरोहिमहतामिति मङ्गलत्वं ) पूज्य पुरुषोंका आदर करना ही ( मंपापंगालयति वा मंगसुखंलाति ददाती ति मङ्गलं ) पापका नाशक सुख का देनेवाला सार्थक मङ्गल होता है अर्थात् सार्थक मङ्गलाचरण है क्योंकि सत्पुरुष किये उपकारको नहीं भूलते । किये हुये उपकारके करनेवाले उपकारीको भूलना कृत्यता रूपी महा पाप है जहाँ पाप है वहाँ पापमल नाशक मङ्गल कहाँ। इस हेतु अपनी विव्यध्वनिसे द्वादशाङ्गरूप समस्त

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 483