Book Title: Lavechu Digambar Jain Samaj
Author(s): Zammanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jain Calcutta

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Page 11
________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्रीनेमिनाथ हरिवंश समुद्र चन्द्र श्रीलोमकर्ण नृपनाथ समुद्भवाच्च श्रीलम्बकाश्चन पुरोपधि सन्निवेशात् श्रीलम्बकञ्चुक इति प्रथितोऽत्र वंशः ॥४॥ श्रीशुद्धराजन्यकुलेप्रसिद्धे वंशोऽभिवृद्धोभुवियादवानाम् यत्रास्ति सूतिर्जगदाधिपस्य श्रीनेमिनाथस्यचिरंजयेतसः ॥५॥ अर्थ-कार्यके प्रारम्भमें, कार्यके मध्यमें, कार्यकी समाप्तिमें श्रीइष्टदेव नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण नियमपूर्वक अवश्य करना चाहिये ऐसी श्रीदेवाधिदेव परमगुरु श्रीवीतराग सर्वज्ञ भगवान् अरहन्त देवकी आज्ञा है सोही श्री गोमट्टसारादि जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंमें तथा श्री श्लोकवार्तिकादि जैन न्यायशैलीके शास्त्रोंमें लिखा है कि :अभिमत फल सिद्धे रभ्युपायः सुवोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरातात्

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