Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्य
के ज्ञानादि स्वरूप का उपघातादि करने रूप होता है। अर्थात् चाहे शरीर हो या न हो तथा भव या क्षेत्र चाहे जो हो लेकिन जो प्रकृति अपने फल का अनुभव ज्ञानादि गुणों के उपघातादि करने के द्वारा साक्षात् जीव को ही कराती है, उसे जीवविपाकी प्रकृति कहते हैं।
(१५) भव-विपाकी प्रकृति -- जो प्रकृति नरनारकादि भव में ही फल देती है उसे भवविपाकी प्रकृति कहते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान आयु के दो भाग ब्यतीत होने के बाद तीसरे आदि भाग में आयु का बन्ध होने पर भी जब तक पूर्व भव का क्षय होने के द्वारा उत्तर स्वयोग्य भव प्राप्त नहीं होता है, तब तक यह प्रकृति उदय में नहीं आती है, इसीलिये इसको भवविपाकी प्रकृति कहते हैं।
(१६) पुद्गल विपाको प्रकृति - जो कर्म प्रकृति पुद्गल में फल प्रदान करने के सन्मुख हो अर्थात् जिस प्रकृति का फल आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करे, औदारिक आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गलों में जो कर्मप्रकृति अपनी शक्ति को दिखावे, उसे पुद्गलविपाकी प्रकृति कहते हैं। यानी जो प्रकृति शरीर रूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं में अपना विपाक-फल देती है, वह पुद्गलविपाकी प्रकृति है।
इन सोलह प्रकृति द्वारों की परिभाषायें यहां बतलाई हैं । शेष प्रकृति, स्थिति आदि दस द्वारों की व्याख्या प्रथम, द्वितीय कर्मग्रन्थ में यथास्थान की गई है। अतः अब आगे की गाथाओं में ग्रन्थ के वर्ण्य विषयों का क्रमानुसार कथन प्रारम्भ करते हैं । ध्र वबन्धी प्रकृतियां
सर्वप्रथम क्रमानुसार ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों की संख्या व नाम बतलाते हैं
वन्नचउतेयकम्मागुरुलहु निमणोवघाय भयकुच्छा । मिच्छकसायावरणा विग्धं धुवबंधि सगचत्ता ॥२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org