Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट-२
कर्मों की बंध, उदय, सत्ता प्रकतियों को संख्या में भिन्नता का कारण
ज्ञानावरण आदि मूल कर्मों की बंधयोग्य १२०, उदययोग्य १२२ तया सत्तायोग्य १५८ या १४८ प्रकृतियाँ हैं । अर्थात् बंधयोग्य की अपेक्षा उदययोग्य २ और उदययोग्य की अपेक्षा सत्तायोग्य ३६ या २६ प्रकृतियाँ अधिक हैं । यहाँ इस भिन्नता के कारण को स्पष्ट करते हैं।
सामान्यतया कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता के संबन्ध में यह नियम है कि जितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, बंध होने के पश्चात उतनी ही प्रकृतियों की सत्ता और उदय काल में उतनी ही प्रकृतियों का उदय होता है। बिना बंध के उदय और सत्ता में संख्या अधिक होना भी नहीं चाहिए। लेकिन इस सामान्य नियम का अपवाद होने से उदय और सत्ता में कर्म प्रकृतियों की संख्या अधिक मानी जाती है।
बंध की अपेक्षा उदय प्रकृतियों में दो की अधिकता का कारण यह है कि दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियां हैं- सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय । इनमें से केवल मिथ्यात्व मोहनीय का बंध होता है और शेष दो प्रकृतियाँ बिना बंध के उदय में आती हैं और सत्ता में रहती हैं। इसका कारण यह है कि जैसे कि राख और औषधि विशेष के द्वारा मादक कोदों (धान्य विशेष) को शुद्ध किया जाता है, वैसे ही मादक कोदों जैसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को औषधि समान सम्यक्त्व के द्वारा शुद्ध करके तीन भागों में विभाजित कर दिया जाता है १ - शुद्ध, २ अर्ध शुद्ध और ३ अशुद्ध । उनमें अत्यन्त शुद्ध किये हुए जो कि सम्यक्स्व स्वरूप को प्राप्त हुए हैं अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति में विघातक नहीं होते हैं, ऐसे पुद्गल शुद्ध कहलाते हैं और उनका सम्यक्त्व मोहनीय यह नाम व्यवहार किया जाता है और जो अल्प शुद्धि को प्राप्त हुए हैं वे अर्धविशुद्ध और उनको मिश्र मोहनीय कहते हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only
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