Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 470
________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४२३ चतुरिन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्तक का जघन्य, त्रीन्द्रिय निर्वृत्य पर्याप्तक का उत्कृष्ट, चतुरिन्द्रिय निर्वृषपर्याप्तक का जघन्य, चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट, असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य, चतुरिन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट और असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का जघन्य उपपाद योगस्थान क्रम क्रम से अधिक अधिक जानना । तह य असण्णीसणी असणिसण्णिस्स सण्णि उववादं । सुमेइ दियलगिअवरं एतढिस्स ।। २३६ इसी प्रकार उससे अधिक असंज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थान और संजी लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य स्थान, उससे अधिक असंज्ञी निर्वृत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट और संज्ञी निर्वृत्यपर्याप्तक का जघन्य स्थान, उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान पल्य के असंख्यातवें भाग गुणा है और उससे अधिक गुणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य एकांतानुवृद्धि योगस्थान जानना चाहिये । सणिस्ववादवरं निव्वत्तिगदस्त सुहुमजीवस्स । द्विवरे थूलथूले य ।। २३७ एयंत वढिअवरं उससे अधिक संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान, उससे अधिक सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का जघन्य एकांतानुवृद्धि योगस्थान है, उससे अधिक बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का और बादर (स्थूल ) एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रम से पल्य के असंख्यातवें भाग कर गुणा है । तह सुहुमसुहुमजेठ्ठे तो बादरबादरे वरं होदि । अंतरमवरं लगिसुहमिदरवरंपि परिणामे ॥ २३८ इसी प्रकार उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक इन दोनों के उत्कृष्ट योगस्थान क्रम से अधिक हैं। उससे अधिक बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक इन दोनों के उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धि योगस्थान हैं, उसके बाद अंतर है । अर्थात् बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धि योगस्थान और सूक्ष्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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