Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 471
________________ ४२४ परिशिष्ट-२ एकेन्द्रिय लन्यपर्याप्तक का जघन्य परिणाम योगस्थान, इन दोनों के बीच में जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का पहला अंतर है। इस अंतर के स्थानों का कोई स्वामी नहीं है। क्योंकि ये स्थान किसी जीव के नहीं होते हैं, इसी कारण यह अंतर पड़ जाता है। इन स्थानों को छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक इन दोनों के जघन्य और उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान क्रम से पल्य के असंख्यातवें भाग कर गुणे जानना चाहिये । अंतरमुवरीवि पुणो तप्पुण्णाणं च उवरि अंतरियं । एयंतबढिठाणा तसपणलद्धिस्स अवरवरा ॥ २३६ इसके ऊपर दूसरा अंतर है। अर्थात बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान के आगे जगतश्रेणी के असख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान स्वामीरहित हैं। इनको छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों के जधन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान क्रम से पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणे हैं । फिर इस बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योगस्थान के आगे तीसरा अंतर है। उसको छोड़कर पांच त्रसों के अर्थात् द्वीन्द्रिय लब्धिअपर्याप्तक आदि पांच के जधन्य और उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रम से पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणे हैं। लडोणिवत्तीणं परिणामयंतवढिठाणाओ। परिणामट्ठागाओ अन्तरअन्तरिय उवरुवरि ।। २४० इसके आगे चौथा अन्तर है । इसके बाद लब्धि-अपर्याप्तक और निर्वृत्ति अपर्याप्तक पाँच त्रसजीवों के परिणामयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धि योगस्थान और परिणामयोगस्थान तथा इनके ऊपर बीच-बीच में अन्तर सहित स्थान हैं । ये तीनों स्थान उत्कृष्ट और जघन्य पने को लिये हुए पहली रीति से क्रम पूर्वक पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणित जानना । ___इस तरह ८४ स्थान योगों के हैं । इन स्थानों में अविभाग प्रतिच्छेद एक के बाद दूसरे में आगे-आगे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं । कर्मग्रन्थ में योग के उपपाद योगस्थान आदि तीन भेद नहीं किये हैं, इसीलिये जघन्य और उत्कृष्ट, इन दो भेदों को लेकर जीवस्थानों के २८ भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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