Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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उत्तरोत्तर परिणामों की विशुद्धि की अधिकता होते जाने के कारण कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी अधिक अधिक होती है, अर्थात् जैसे-जैसे मोहकर्म निःशेष होता जाता है वैसे-वैसे निर्जरा भी बढ़ती जाती है और उसका द्रव्यप्रमाण असंख्यातगुणा, असंख्यातगुणा अधिकाधिक होता जाता है । फलतः वह जीव मोक्ष के अधिक अधिक निकट पहुँचता जाता है । जहाँ गुणाकार रूप से गुणित निर्जरा का द्रव्य अधिकाधिक पाया जाता है उनको गुणश्र ेणि कहा जाता है और उन स्थानों में होने वाली निर्जरा गुणश्रेणि निर्जरा कही जाती है ।
गो० जीवकांड गा० ६६-६७ में उक्त दृष्टि को लक्ष्य में रखकर गुण श्रोणि का वर्णन किया है । यह वर्णन कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थ से मिलता-जुलता है । लेकिन इतना अंतर है कि कर्मग्रन्थ आदि में सम्यक्त्व, देशविरति सर्वविरति अनन्तानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोह का क्षपक, चारित्रमोह का उपशमक, उपशांतमोह, क्षपक, क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली, ये ग्यारहगुणश्रेणि स्थान बतलाये हैं । लेकिन गो० जीवकांड, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवार्तिक आदि ग्रन्थों में सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन दोनों को अलग-अलग न मानकर जिन पद से दोनों का ग्रहण कर लिया है ।
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गो० जीवकांड की मूल गाथाओं में गुणश्रेणि निर्जरा के दस स्थान गिनाये हैं, लेकिन टीकाकार ने ग्यारह स्थानों का उल्लेख करते हुये स्पष्ट किया हैं कि या तो सम्यक्त्वोत्पत्ति इस एक नाम से सातिशय मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि, इस तरह दो भेदों का ग्रहण करके ग्यारह स्थानों की पूर्ति की जा सकती है अथवा ऐसा न करके सम्यक्त्वोत्पत्ति शब्द से तो एक ही स्थान लेना किन्तु अन्तिम जिन शब्द से स्वस्थानस्थित केवली और समुद्घातगत केवली, इन दो स्थानों का ग्रहण कर लेना चाहिये और स्वस्थानकेवली की अपेक्षा समुद्घात गत केवली के निर्जरा द्रव्य का प्रमाण असंख्यात - गुण होता है ।
इस प्रकार ग्यारह और दस गुणश्र ेणि स्थान मानने में विवक्षा भेद है ।
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