Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 497
________________ परिशिष्ट-३ गुणश्रेणी करने द्वितीयाद अंत पर्यन्त समयों में समय-समय के प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये द्रव्य को अपकर्षण करता है और संचित अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार उदयावलि आदि में उसे निक्षेपण करता है । ऐसे आयु के बिना सात कर्मों का गुणश्रेणि विधान समय-समय में होता है ! ४५० उक्त कथन का सारांश यह है कि गुणश्रेणि रचना जो प्रकृतियाँ उदय में आ रही हैं उनमें भी होती है और जो उदय में नहीं आ रही हैं उनमें भी होती है । अन्तर केवल इतना ही है कि उदयागत प्रकृतियों के द्रव्य का निक्षेपण तो उदयावली, गुणश्रेणी और ऊपर की स्थिति, इन तीनों में ही होता है, किन्तु जो प्रकृतियाँ उदय में नहीं होती हैं उनके द्रव्य का स्थापन केवल गुणश्रेणि और ऊपर की स्थिति में ही होता है, उदयावली में उनका स्थापन नहीं होता है । आशय यह है कि वर्तमान समय से लेकर एक आवली तक के समय में जो निषेक उदय आने के योग्य हैं, उनमें जो द्रव्य दिया जाता है, उसे उदयावली में दिया गया द्रव्य समझना चाहिये । उदयावली के ऊपर गुणश्रेणि के समयों के बराबर जो निषेक हैं, उनमें जो द्रव्य दिया जाता है, ऊपर के अंत के जाता है, उसे उसे गुणश्रेणि में दिया गया समझना चाहिये । गुणश्रेणि से कुछ निषेकों को छोड़कर शेष कर्मनिषेकों में जो द्रव्य दिया ऊपर की स्थिति में दिया गया द्रव्य समझना चाहिये । इसको मिथ्यात्व के उदाहरण द्वारा यों समझना चाहिये मिथ्यात्व के द्रव्य में अपकर्षक भागाहार का भाग देकर, एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण द्रव्य तो ज्यों का त्यों रहता है, शेष एक भाग को पत्य के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहुभाग का स्थापन ऊपर की स्थिति में करता है । शेष एक भाग में असंख्यात लोक का भाग देकर गुणश्रेणि आयाम में देता है, शेष एक भाग उदयावली में देता है । इस प्रकार गुणश्रेणि रचना के लिये गुणाकाल के अंतिम समय पर्यन्त असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्य का अपकर्षण करता है और पूर्वोक्त विधान के अनुसार उदयावली, गुणश्रेणिआयाम और ऊपर की स्थिति में उस द्रव्य की स्थापना करता है । इस प्रकार आयु के सिवाय शेष सात कर्मों का गुणश्र णि विधान जानना चाहिये । गुणश्रेणि में उत्तरोत्तर संख्यातगुणे संख्यातगुणे हीन-हीन समय में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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