Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 483
________________ परिशिष्ट - २ ४३६ उससे अधिक भाग है । चारों युगलों में जो दो-दो स्पर्श हैं, उनका आपस में बराबर-बरावर भाग है । आनुपूर्वी में -- देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी का भाग सबसे कम किन्तु आपस में बराबर होता है। उससे मनुष्यानुपूर्वी और तिर्यचानुपूर्वी का क्रम से अधिक अधिक भाग है । - विहायोगति में का उससे अधिक । - प्रशस्त विहायोगति का कम और अप्रशस्त विहायोगति त्रसादि बीस में- - त्रस का कम, स्थावर का उससे अधिक । पर्याप्त का कम, अपर्याप्त का उससे अधिक । इसी तरह प्रत्येक साधारण, स्थिर अस्थिर, शुभ - अशुभ, सुगम-दुर्भग, सूक्ष्म- बादर और आदेय - अनादेय का भी समझना चाहिए तथा अयशःकीर्ति का सबसे कम और यश कीर्ति का उससे अधिक भाग है । आतप उद्योत, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, सुस्वर, दुःस्वर का परस्पर में बराबर भाग है । निर्माण, उच्छ्वास, पराघात, उपघात, अगुरुलघु और तीर्थकर नाम का अल्पबहुत्व नहीं होता है । क्योंकि अल्पबहुत्व का विचार सजातीय अथवा विरोधी प्रकृतियों मे ही किया जाता है । जैसे कृष्ण नामकर्म के लिए वर्णनामकर्म के शेष भेद सजातीय हैं तथा सुभग और दुर्भग परस्पर में विरोधी हैं । किन्तु उक्त प्रकृतियाँ न तो सजातीय हैं क्योंकि किसी एक पिंड प्रकृति की अवान्तर प्रकृतियाँ नहीं हैं तथा विरोधी भी नहीं हैं, क्योंकि उनका बंध एक साथ भी हो सकता है । गोत्रकर्म - नीच गोत्र का कम और उच्च गोत्र का अधिक है । अन्तरायकर्म - दानान्तराय का सबसे कम और लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तराय का उत्तरोत्तर अधिक भाग है । 'उत्कृष्ट पद की अपेक्षा से उक्त अल्पबहुत्व समझना चाहिए और जघन्यपद की अपेक्षा से ज्ञानावरण और वेदनीय का अल्पबहुत्व पूर्ववत् है । दर्शनावरण में निद्रा का सबसे कम प्रचला का उसके अधिक, निद्रा-निद्रा , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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