Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 484
________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४६७ का उससे अधिक । प्रचला-प्रचला का उससे अधिक, स्त्यानद्धि का उससे अधिक है। शेष पूर्ववत् भाग है। मोहनीय में केवल इतना अंतर है कि तीनों वेदों का भाग परस्पर में तुल्य है और रति-अरति से विशेषाधिक है । उससे संज्वलन मान, क्रोध, माया और लोभ का उत्तरोत्तर अधिक है। आयु में तिर्यचायु और मनुष्यायु का सबसे कम है और देवायु, नरकायु का उससे असंख्यात गुणा है। नामकर्म में तिर्यचति का सबसे कम, मनुष्यगति का उससे अधिक, देवगति का उससे असंख्यात गुणा और नरकगति का उससे असंख्यात गुणा भाग है । जाति का पूर्ववत् है । शरीरों में औदारिक का सबसे कम, तैजस का उससे अधिक, कार्मण का उससे अधिक, वैक्रिय का उससे असंख्यात गुणा, आहारक का उससे असख्यात गुणा भाग है । संघात और बंधन में भी ऐसा ही क्रम जानना चाहिए । अंगोपांग में औदारिक का सबसे कम, वैक्रिय का उससे असख्यात गुणा, आहारक का उससे असंख्यात गुणा भाग है। आनुपूर्वी का पूर्ववत् है । शेष प्रकृतियों का भी पूर्ववत् जानना चाहिए। गोत्र और अंतराय कर्म का भी पूर्ववत् है । यानी नीच गोत्र का कम और उच्च गोत्र का उससे अधिक । दानान्त राय का कम, लाभान्त राय का उससे अधिक, भोगान्त राय का उससे अधिक, उपभोगान्तराय का उससे अधिक और वीर्यान्तराय का उससे अधिक भाग है। इस प्रकार गो० कर्मकांड और कर्मप्रकृति के अनुसार कर्म प्रकृतियों में कर्मदलिकों के विभाजन व अल्पबहुत्व को समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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