Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 469
________________ ४२२ परिशिष्ट-२ ____एक योगस्थान में सब स्पर्द्धकों, सब वर्गणाओं की संख्या और असंख्यात प्रदेशों में गुणहानि का आयाम (काल) का प्रमाण सामान्य से जगत्त्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र है । क्योंकि असंख्यात के बहुत भेद हैं। एक योगस्थान में अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । ऊपर जो योगस्थान कहे हैं, उनमें चौदह जीवसमासों के जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तथा उपपादादिक तीन प्रकार के योगों की अपेक्षा चौरासी स्थानों में अब अल्पबहुत्व बतलाते हैं --- सुहमगलद्धिजहण्णं तिण्णिव्वत्तीजहण्णयं तत्तो। लद्धिअपुण्णुक्कस्सं बादरलद्धिस्स अवरमदो ॥ २३३ सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव का जघन्य उपपादस्थान सबसे । थोड़ा है, उससे सूक्ष्म निगोदिया निवृ त्यपर्याप्तक जीव का जघन्य उपपादस्थान पल्य के असंख्यातवें भाग गुणा है, उससे अधिक सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान और उससे भी अधिक बादर लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य उपपादयोगस्थान जानना चाहिये । णिव्वत्तिसुहुमजे8 बादरणिव्वत्तियस्स अवरं तु। बादरलद्धिस्स वरं बोइदियलद्धिगजहण्णं ॥ २३४ फिर उससे अधिक सूक्ष्म नित्यपर्याप्तक जीव का उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान है। उससे अधिक बादर नित्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है, उससे बादर लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट योगस्थान अधिक है, उससे अधिक द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है । बादरणिवत्तिवरं णिवत्तिबिइ दियस्स अवरमदो। एवं बितिबितितितिच चउविमणो होदि चउविमणो ॥ २३५ उसके बाद उससे भी अधिक बादर एकेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट योगस्थान है, उससे अधिक द्वीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान और इसी तरह द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट तथा त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य उपपाद स्थान, द्वीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट, त्रीन्द्रिय निव त्यपर्याप्तक का जघन्य, त्रीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्तक का उत्कृष्ट, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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