Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 465
________________ परिशिष्ट - २ कर्मप्रकृति में शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बतलाने के लिए वर्ग बना कर मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने का पहले संकेत किया गया है और एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से प्रकृतियों की स्थिति का परिमाण बतलाते हुए आगे लिखा है ४१८ एसे गिदियडहरे सव्वासि ऊणसंजओ जेट्टो | अर्थात् अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने से जो अपनी-अपनी जघन्य स्थिति आती है, वहीं एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए । कम किये गये पल्य के असंख्यातवें भाग को उस जघन्य स्थिति में जोड़ने पर उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण होता है । कर्मग्रन्थ में पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का विवेचन पंचसंग्रह और कर्म प्रकृति दोनों के अभिप्रायानुसार किया है । इन दोनों विवेचनों में यह अंतर है कि पंचसंग्रह में तो अपनी-अपनी प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जघन्य स्थिति बतलाई हैं और कर्म प्रकृति में अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर और उसके लब्ध में से पल्य का असंख्यातवां भाग कम करके जघन्य स्थिति बतलाई है । गो० कर्मकांड प्रकृतियों की स्थिति में भाग देने तक तो पंचसंग्रह के मत से सहमत है लेकिन आगे वह कर्मप्रकृति के मत से सहमत हो जाता है । पंचसंग्रह का मत है कि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लब्ध आता है, वह तो एकेन्द्रिय की अपेक्षा से जघन्य स्थिति होती है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने से उसकी उत्कृष्ट स्थिति हो जाती है । लेकिन गो० कर्मकांड और कर्मप्रकृति के मतानुसार मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है वही उत्कृष्ट स्थिति होती है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग कम देने पर जघन्य स्थिति होती है। पंचसंग्रह में तो अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में भाग नहीं दिया जाता है। किन्तु अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त लब्ध जघन्य स्थिति का परिमाण है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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