Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक तथा तिर्यंच यदि अविरत सम्यग्दृष्टि हों तो देवायु का बंध करते हैं । जिससे चौथे गुणस्थान की विशुद्धि उत्कृष्ट मनुष्यायु के बंध का कारण नहीं हो सकती है। ___अब दूसरे सासादन गुणस्थान में तिर्यंचायु के उत्कृट स्थितिबंध के बारे में विचार करते हैं। दूसरा सासादन गुणस्थान उसी समय होता है जब जीव सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व के अभिमुख होता है । अतः सम्यक्त्व गुण के अभिमुख मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यक्त्व गुण से विमुख सासादन सम्यग्दृष्टि के अधिक विशुद्धि नहीं होती है, जिससे तिर्यंचायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध सासादन सम्यग्दृष्टि को नहीं हो सकता है।
इस प्रकार से तीर्थंकर, आहारकद्विक, देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का तथा मिथ्यादृष्टि को शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होने का सामान्य से स्पष्टीकरण करने के बाद अब आगे की गाथा में चार गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव किन-किन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं, यह विस्तार से बतलाते हैं।
विगलसुहुमाउगतिगं तिरिमणुया सुरविउविनिरयदुर्ग। एगिदिथावरायव आईसाणा सुरुक्कोसं ॥४३॥ ___ शब्दार्थ-विगलसुहुमाउगतिगं-विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और आयुत्रिक, तिरिमणुया-तिर्यंच और मनुष्य, सुरविउविनिरयदुगं-देवद्विक, वैक्रियद्विक, नरकद्विक को, एगिदिथावरायव - एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप नामकर्म, आईसाणा-ईशान तक के, सुर-देव, उक्कोसं-उत्कृष्ट स्थितिबंध ।
गाथार्थ : मिथ्यात्वी तिर्यंच और मनुष्य विकलेन्द्रियत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, आयुत्रिक तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक और नरकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हैं। ईशान देवलोक
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