Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
३४६ उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बंध तथा उनके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव भंगों का स्वरूप पहले बतला चुके हैं तथा प्रत्येक बंध के अंत में मूल और उत्तर प्रकृतियों में उनका विचार किया गया है । अब प्रदेशबन्ध में भी उनका विचार करते हैं।
सबसे अधिक कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को उत्कृष्ट प्रदेशबंध और उत्कृष्ट प्रदेशबंध में एक दो वगैरह स्कन्धों की हानि से लेकर सबसे कम कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध कहते हैं। इस अकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेदों में प्रदेशबंध के सब भेदों का ग्रहण हो जाता है।
सबसे कम कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को जघन्य प्रदेशबंध कहते हैं और उसमें एक दो आदि स्कंधों की वृद्धि से लेकर अधिक-से-अधिक कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को अजघन्य प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस प्रकार जघन्य और अजघन्य भेदों में भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेदों की तरह प्रदेशबंध के सब भेद गभित हो जाते हैं । . गाथा में जो दर्शनषट्क आदि प्रकृतियों में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादि आदि चारों भेद बतलाये हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ दर्शनषट्क में चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला इन छह प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है। उनमें से निद्रा और प्रचला इन दो को छोड़ कर शेष चार दर्शनावरणों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है। क्योंकि यहां मोहनीय और आयु कर्म का बंध नहीं होता है तथा निद्रापंचक का भी बंध नहीं होता है। जिससे उन्हें बहुत द्रव्य मिलता है। इस उत्कृष्ट प्रदेशबंध को करके जब कोई जीव ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में गया और वहां से गिरकर दसवें गुणस्थान में आकर जब वह जीव उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट
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