Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 441
________________ ३६४ कम करता है । इनकी स्थिति के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात वगैरह कार्य बन्द हो जाते हैं और शेष प्रकृतियों के होते रहते हैं । क्षीणकषाय के उपान्त समय में निद्राद्विक का क्षय करता है और शेष चौदह प्रकृतियों का अन्तिम समय में क्षय करता है और उसके अनन्तर समय में वह सयोगकेवली हो जाता है । शतक यह सयोगकेवली अवस्था जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि काल की होती है । इस काल में भव्य जीवों के प्रतिबोधार्थ देशना, विहार आदि करते हैं। यदि उनके वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक होती है तो उनके समीकरण के लिये यानी आयुकर्म की स्थिति के बराबर वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को करने के लिये समुद्घात करते हैं, जिसे केवलीसमुद्घात कहते हैं और उसके पश्चात योग का निरोध करने के लिये उपक्रम करते हैं । यदि आयुकर्म के बराबर ही वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति हो तो समुद्घात नहीं करते हैं । योग के निरोध का उपक्रम इस प्रकार है कि सबसे पहले बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग को रोकते हैं, उसके पश्चात बादर वचनयोग को रोकते हैं और उसके पश्चात सूक्ष्मकाय के द्वारा बादर काययोग को रोकते हैं, उसके बाद सूक्ष्म मनोयोग को, उसके पश्चात् सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। इस प्रकार बादर, सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग और बादर काययोग को रोकने के पश्चात् सूक्ष्म काययोग को रोकने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं । उस ध्यान में स्थितिघात आदि के द्वारा सयोगि अवस्था के अंतिम समय पर्यन्त आयुकर्म के सिवाय शेष कर्मों का अपवर्तन करते हैं । ऐसा करने से अन्तिम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगि अवस्था के काल के बराबर हो जाती है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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