Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 429
________________ ३८२ शतक उवसामं उवणीया गुणमहया जिणचरित्तसरिसंपि । पडिवायंति कसाया कि पुण सेसे सरागत्थ ॥ . गुणवान पुरुष के द्वारा उपशांत की गई कषायें जिन भगवान सरीखे चारित्र वाले व्यक्ति का भी पतन करा देती हैं, फिर अन्य सरागी पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? ____ अतः ज्यों-ज्यों नीचे उतरता जाता है, वैसे-वैसे चढ़ते समय जिसजिस गुणस्थान में जिन-जिन प्रकृतियों का बंधविच्छेद किया था, उसउस गुणस्थान में आने पर वे प्रकृतियां पुनः बंधने लगती हैं। उतरते-उतरते वह सातवें या छठे गुणस्थान में ठहरता है और यदि वहां भी अपने को संभाल नहीं पाता है तो पांचवें और चौथे गुणस्थान में पहुँचता है। यदि अनंतानुबंधी का उदय आ जाता है तो सासादन सम्यग्दृष्टि होकर पुनः मिथ्यात्व में पहुँच जाता है। और इस तरह सब किया कराया चौपट हो जाता है । लेकिन यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि यदि पतनोन्मुखी उपशम श्रोणि का आरोहक छठे गुणस्थान में आकर संभल जाता है तो पुनः उपशम श्रेणि चढ़ सकता है । क्योंकि एक भव में दो बार उपशम श्रेणि चढ़ने का उल्लेख पाया जाता है। परन्तु जो जीव दो बार अद्धाखये पडतो अधापवत्तोत्ति पडदि हु कमेण । सुज्झंतो आरोहदि पडदि हु सो संकिलिस्संतो ।। __-लब्धिसार गा० ३१० जीव उपशम श्रेणि में अधःकरण पर्यन्त तो क्रम से गिरता है । यदि उसके बाद विशुद्ध परिणाम होते हैं तो पुनः ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है और संक्लेश परिणामों के होने पर नीचे के गुणस्थानों में आता है। २ एकमवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उवसमेज्जा। कर्मप्रकृति गा० ६४ -पंचसंग्रह गा० ६३ (उपशम) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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