Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कषाय का उपशम व क्षय ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक में है, जिससे उन गुणस्थानों में प्रकृति व प्रदेश बंध होता है' और चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाने से सदा के लिये कर्मोच्छेद हो जाता है । ग्यारहवें गुणस्थान से आगे होने वाला प्रकृति अन् बंध पहले समय में होकर दूसरे समय में निर्जीर्ण हो जाता 1 योगशक्त होने से यह बंध माना जाता है, लेकिन कषाय परिणाम नहीं होने से अपना फल नहीं देते हैं ।
पहले योगस्थानों का प्रमाण श्रोणि के असंख्यातवें भाग बताया है, अतः बंध के कारणों का कथन करने से बाद अब श्रोणि के स्वरूप को बतलाते हैं ।
चउदसरज्जू लोगो बुद्धिकओ सत्तरज्जुमाणघणो । तद्दी हेगपएसा सेढी पयरो य तव्वग्गो ॥६७॥
शतक
शब्दार्थ - चउदसरज्जू - चौदह राजू प्रमाण, लोगो - लोक, बुद्धिकओ-मति कल्पना के द्वारा किया गया, सत्तरज्जुमाणघणोसात राजू प्रमाण का, तद् - उसकी (घनीकृत लोक की) दीहेगपएसा - लंबी एक प्रदेश की सेढी - श्रेणि, पयरो - प्रतर, य- - और तव्वग्गो - उसका वर्ग ।
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गाथार्थ - लोक चौदह राजू प्रमाण है, उसका मति - कल्पना के द्वारा समीकरण किये जाने पर वह सात राजू के घनप्रमाण होता है । उस घनीकृत लोक की लोक प्रमाण लंबी प्रदेशों की पंक्ति को श्र ेणि कहते हैं और उसके वर्ग को प्रतर समझना चाहिये ।
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विशेषार्थ - इस गाथा में लोक, श्रोणि और प्रतर का स्वरूप बतलाया है । गाथा में लोक के स्वरूप का संकेत देते हुए सिर्फ यही लिखा है 'चउदसरज्जू लोगो, जिसका आशय है कि लोक चौदह राजूं
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