Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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मुनि के द्वारा ही रचा जा सके, उसे आहारक शरीर कहते हैं । जो शरीर भोजन पचाने में हेतु और दीप्ति का निमित्त हो, उसे तैजस शरीर कहते हैं । शब्दोच्चार को भाषा कहते हैं। बाहर की वायु को शरीर के अन्दर ले जाना और अन्दर की वायु को बाहर निकालना श्वासोच्छ्वास कहा जाता है । विचार करने के साधन को मन कहते हैं । कर्मों के पिंड को कार्मण-कर्म शरीर कहते हैं।
ये वर्गणायें क्रम से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती हैं । अर्थात् औदारिक से वैक्रिय, वैक्रिय से आहारक, आहारक से तैजस । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में शरीरों का वर्णन करते हुए इसी प्रकार बतलाया है-परंपरं सूक्ष्मम् (२।७) । यद्यपि ये शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं तथापि उनके निर्माण में अधिक-अधिक परमाणुओं का उपयोग होता है । जैसे रुई, लकड़ी, मिट्टी, पत्थर और लोहा अमुक परिमाण में लेने पर भी रुई से लकड़ी का आकार छोटा होगा, लकड़ी से मिट्टी का आकार छोटा होगा, मिट्टी से पत्थर का आकार छोटा होगा और पत्थर से लोहे का आकार छोटा होगा। लेकिन आकार में छोटे होने पर भी ये वस्तुयें उत्तरोत्तर ठोस और वजनी होती हैं । वैसे ही औदारिक शरीर जिन पुद्गल वर्गणाओं से बनता है, वे रुई की तरह अल्प परिमाण वाली किन्तु आकार में स्थूल होती हैं । वैक्रिय शरीर जिन पुद्गल वर्गणाओं से बनता है वे लकड़ी की तरह औदारिक योग्य वर्गणाओं से अधिक परमाणु दाली किन्तु अल्प परिमाण वाली हैं। इसी प्रकार आगे-आगे की वर्गणाओं के बारे में भी समझना चाहिये कि आगे-आगे की वर्गणाओं में परमाणुओं की संख्या बढ़ती जाती है किंतु आकार सूक्ष्म, सूक्ष्मतर होता जाता है । इसीलिये इनकी अवगाहना अर्थात् लम्बाई-चौड़ाई वगैरह सामान्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बताई है और वह अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्तरोत्तर हीन-हीन है । इसका कारण यह है कि ज्यों-ज्यों पर
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