Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 392
________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३४५ शब्दार्थ-सुमुणी-अप्रमत्त यति, दुन्नि-दो प्रकृतियों (आहारकद्विक) का, असन्नी-असंज्ञी, निरयतिग-नरकत्रिक, सुराउ-देवायु, सुरविउन्विटुगं-देव द्विक और वैक्रियद्विक, सम्मोसम्यग्दृष्टि, जिणं-तीर्थंकर नामकर्म का, जहन्नं-जघन्य, सुहुमनिगोय-सूक्ष्म निगोदिया जीव, आइखणि-उत्पत्ति के पहले समय में, सेसा-शेष रही हुई प्रकृतियों का। __ गाथार्थ - अप्रमत्त मुनि आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबंध करते हैं । असंज्ञी जीव नरकत्रिक और देवायु का तथा सम्यग्दृष्टि जीव देवद्विक, वैक्रियद्विक और तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं। इनके सिवाय शेष रही हुई प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदिया जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में करते हैं । विशेषार्थ - इस गाथा में जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों को बतलाया है । ग्यारह प्रकृतियों का तो नामोल्लेख करके उनके स्वामियों का कथन किया है और शेष रही १०८ प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी सूक्ष्म निगोदिया जीव को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। ___ 'सुमुणी दुन्नि' यानी आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबन्ध सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं । यह सामान्य की अपेक्षा समझना चाहिये किन्तु विशेष से जिस समय परावर्तमान योग वाले अप्रमत्त यति (मुनि) आठ कर्मों का बंध करते हुए नामकर्म के इकतीस प्रकृति वाले बंधस्थान का बंध करते हैं और योग भी जघन्य है, उस समय ही वे आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबंध करते हैं । यद्यपि तोस प्रकृतिक बंधस्थान में भी आहारकद्विक का समावेश है, लेकिन इकतीस में एक प्रकृति अधिक होने के कारण बटवारे के समय उनको कम द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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