Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२६३
अन्तराय कर्म को प्राप्त भाग पांच विभागों में विभाजित होकर उसकी दान-अन्तराय आदि पांचों उत्तर प्रकृतियों को मिलता है। क्योंकि अन्तराय कर्म देशघाती है और ध्रुवबंधी होने के कारण दानान्तराय आदि पांचों प्रकृतियां सदा बंधती हैं।
घातिकर्मों की उत्तर प्रकृतियों में प्राप्त द्रव्य के विभाजन को बतलाने के पश्चात अब वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों को प्राप्त भाग के विभाग को स्पष्ट करते हैं।
वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियां हैं, किन्तु उनमें से प्रति समय एक ही प्रकृति का बंध होता है, अतः वेदनीय कर्म को जो द्रव्य मिलता है वह उस समय बंधने वाली एक प्रकृति को मिलता है । इसी प्रकार आयुकर्म के बारे में भी समझना चाहिए कि आयुकर्म की एक समय में एक ही उत्तर प्रकृति बंधती है तथा आयुकर्म को जो भाग मिलता है वह उस समय बंधने वाली एक प्रकृति को ही मिल जाता है ।
नामकर्म को जो मूल भाग मिलता है वह उसकी बंधने वाली उत्तर प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है । अर्थात् गति, जाति, शरीर, उपांग, बंधन, संघात, संहनन, संस्थान आनुपूर्वी, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उद्योत, उपघात, उच्छ्वास, निर्माण, तीर्थंकर, आतप, विहायोगति और असदशक अथवा स्थावरदशक में से जितनी प्रकृ
मोहनीय को और आधा भाग नोकषाय मोहनीय को मिलता है। कषाय. मोहनीय को मिलने वाले भाग के पुनः चार भाग होते है और वे चारों भाग संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ को दिये जाते हैं। नोकषाय मोहनीय के पाँच भाग होते हैं । जो तीन वेदों में से किसी एक वेद को, हास्य-रति और शोक-अरति के युगलों में से किसी एक युगल को, भय और जुगुप्सा को दिये जाते हैं। क्योंकि एक समय में पांचों ही नोकषाय का बंध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org