Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
होती है। उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में सातवीं गुणश्रोणि और क्षपकश्रोणि में चारित्रमोहनीय का क्षपण करते हुए आठवीं गुणश्रेणि होती है। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में नौवीं गुणश्रेणि, सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में दसवीं गुणश्रोणि और अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणि होती है। ____इन सभी गुणश्रेणियों में क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, असंख्यातगृणे कर्मदलिकों की गुणश्रेणि निर्जरा होती है किन्तु उसके वेदन करने का काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा, संख्यातगुणा हीन लगता है अर्थात् कम समय में अधिक-अधिक कर्मदलिकों का क्षय होता है। इसीलिये इन ग्यारह स्थानों को गुणश्रेणिस्थान कहते हैं ।
१ गो. जीवकांड में भी गुणश्रेणियों की गणना इस प्रकार की है
सम्मत्तुप्पत्तीये सावयविरदे अणंतकम्मंसे। . दंसणमोहक्खवगे कषाय उवसामगे य उवसंते ॥६६।। खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्वा असंखगुणिटकमा । तविवरीया काला सखेज्जगुणक्कमा होति ॥६७।।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर, श्रावक के, मुनि के, अनन्तानुबन्धी कषाय का विसयोजन करने की अवस्था में, दर्शनमोह का क्षरण करने वाले के, कषाय का उपशम करने वाले के, उपशान्त मोह के, क्षपक श्रेणि के तीन गुणस्थानों मे, क्षीणमोह गुणस्थान में तथा स्वस्थान केवली के और समुद्घात करने वाले केवली के गुणश्रेणि निर्जरा का द्रव्य उत्तरोत्तर असख्यातगुणा, असंख्यातगुणा है और काल उसके विपरीत है अर्थात् उत्तरोत्तर संख्यातगुणा, संख्यात गुणा काल लगता है-काल उत्तरोत्तर संख्यात गुणहीन है।
कर्मग्रंथ से इसमें केवल इतना ही अन्तर है कि अयोगिवली के स्थान पर समुद्घात केवली को गिनाया है ।
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