Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक आगे लिखा है- 'एयावयाचेव गणिए एयावया चेव गणिअस्स विसए, एत्तोऽवरं ओवमिए पवत्तइ ।'' अर्थात् शोर्षप्रहेलिका तक गुणा करने से १९४ अंक प्रमाण जो राशि उत्पन्न होती है, गणित की अवधि वहीं तक है, उतनी ही राशि गणित का विषय है। उसके आगे उपमा प्रमाण को प्रवृत्ति होती है। __उपमा प्रमाण का स्पष्टीकरण करने के लिये बालागों के उद्धरण को आधार बनाया है। पहला नाम है उद्धारपल्य, जिसका स्वरूप यह
पूर्व का एक लतांग, ८४ लाख लतांग का एक लता, ८४ लाख लता का एक महालतांग, ८४ लाख महालतांग का एक महालता, इसी प्रकार आगे नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्मांग,पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रु टितांग, महात्रु टित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, ऊहांग, ऊह, महाऊहांग, महाऊह, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका । (गाथा ६४-७१)
अनुयोगद्वारसूत्र और ज्योतिष्करण्ड में आगत नामों की भिन्नता का कारण काललोकप्रकाश में इस प्रकार स्पष्ट किया है-'अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि माथुर वाचना के अनुगत हैं और ज्योतिष्करंड आदि वल्भी वाचना के अनुगत, इसी से दोनों में अंतर है।
दिगम्बर ग्रन्थ तत्त्वार्थराजवार्तिक में-पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुटयांग तुट्य, अटटांग, अटट, अममांग अमम, हूहू अंग, हूहू, लतांग, लता, महालता आदि सज्ञायें दी हैं। ये सब संज्ञाये ८४ लाख को ८४ लाख से गुणा करने पर बनती हैं । इस गुणन विधि में श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थ
एक मत हैं। १ अनुयोगद्वार सूत्र १३७
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