Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
२८४
शतक
अब यह बतलाते हैं कि जीवों द्वारा किस क्षेत्र में रहने वाले कर्मस्कन्धों को ग्रहण किया जाता है और ग्रहण करने की प्रक्रिया क्या है।
प्रारम्भ में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि समस्त लोक पुद्गलद्रव्य से ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गल द्रव्य औदारिक आदि अनेक वर्गणाओं में विभाजित है और पुद्गलात्मक होने से ये समस्त लोक में पाई जाती हैं। उक्त वर्गणाओं में ही कर्मवर्गणा भी एक है, अतः कर्मवर्गणा भी लोकव्यापी है। इन लोकव्यापी कर्मवर्गणाओं में से प्रत्येक जीव उन्हीं कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है जो उसके अत्यन्त निकट होती हैं -- एगपएसोगाढं-यानी जीव के अत्यन्त निकटतम प्रदेश में व्याप्त कर्मवर्गणायें जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं। जैसे आग में तपाये लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह अपने निकटस्थ जल को ग्रहण करता है किन्तु दूर के जल को ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही जीव भी जिन आकाश प्रदेशों में स्थित होता है, उन्हीं । आकाश प्रदेशों में रहने वाली कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है तथा जीव द्वारा कर्मों के ग्रहण करने की प्रक्रिया यह है कि जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला जल में गिरने पर चारों ओर से पानी को खींचता है वैसे ही जीव भी सर्व आत्मप्रदेशों से कर्मों को ग्रहण करता है।'
१ (क) एयक्खेत्तोगाढ सम्बपदेसेहिं कम्मणो जोग्ग । बंधदि सगहेदुहि य अणादियं सादियं उभय ।। – गो० कर्मकांड १८५
एक अभिन्न क्षेत्र में स्थित कर्मरूप होने के योग्य अनादि, सादि और उभयरूप द्रव्य को यह जीव सब प्रदेशों से कारण मिलने पर
बाँधता है। (ख) एगपएसोगाढे सवपएसेहिं कम्मणो जोगे।
जीवो पोग्गलदव्वे गिण्हइ साई अणाई वा ।। -पंचसंग्रह २८४
__ एक क्षेत्र में स्थित कर्मरूप होने के योग्य सादि अथवा अनादि पुद्गल द्रव्य को जीव अपने समस्त प्रदेशों से ग्रहण करता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org