Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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का तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीव्र अनुभाग बंध होता है तथा अशुभ प्रकृतियों का मंद, मंदतर, मंदतम और अत्यन्त मंद अनुभाग बंध होता है।
अब तीव्र और मंद अनुभाग बंध के उक्त चार-चार भेदों के कारणों का निर्देश करते हैं कि 'गिरिमहिरयजलरेहासरिसकसाएहि'–पर्वत की रेखा के समान, पृथ्वी की रेखा के समान, धूलि की रेखा के समान और जल की रेखा के समान कषाय परिणामों से क्रमशः अत्यन्त तीव्र (चतुःस्थानिक), तीव्रतम (त्रिस्थानिक), तीव्रतर (द्विस्थानिक) और तीव्र (एकस्थानिक) अनुभाग बंध होता है । यह संकेत अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा से किया गया है और शुभ प्रकृतियों में इसके विपरीत समझना चाहिये । अर्थात् जल व धूलि रेखा के समान परिणामों से अत्यन्त तीब्र (चतुःस्थानिक), पृथ्वी की रेखा के समान परिणामों से तीव्रतम (त्रिस्थानिक) और पर्वत की रेखा के समान परिणामों से तीव्रतर (द्विस्थानिक) अनुभाग बंध होता है । शुभ प्रकृतियों में तीव्र (एकस्थानिक) रस बंध नहीं होता है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
पूर्व में यह बताया गया है कि अनुभाग बंध का कारण कषाय है और तीव्र, तीव्रतर आदि व मंद, मंदतर आदि चार-चार भेद अनुभाग बंध के ही हैं । इनका कारण हेतु काषायिक परिणामों की अवस्थायें हैं। कषाय के चार भेद हैं क्रोध, मान, माया और लोभ और इनमें से प्रत्येक की चार-चार अवस्थायें होती हैं । अर्थात् क्रोध कषाय की चार अवस्थायें होती हैं । इसी प्रकार मान की, माया की और लोभ की चार-चार अवस्थायें होती हैं । जिनके नाम क्रमशः अनन्तानुबंधी कषाय, अप्रत्याख्यानावरण कषाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय हैं । शास्त्रकारों ने इन चारों कषायों के लिये चार उपमायें दी हैं । जिनका संकेत गाथा में किया गया है। अनन्तानुबंधी कषाय
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