Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२३३
है, विशुद्ध भावों के होने पर उतने ही स्थानां से उतरता है तथा उपशम श्रोणि चढ़ते समय जितने विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, गिरते समय उतने ही संक्लेशस्थानों पर उतरता है । इस प्रकार से तो जितने संक्लेश के स्थान, उतने ही विशुद्धि के स्थान हैं। किन्तु जब क्षपक श्रोणि की दृष्टि से विचार करते हैं तो विशुद्धि के स्थान संक्लेश के स्थानों से अधिक हैं । क्योंकि क्षपक श्रेणि चढ़ने वाला जीव जिन विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, उन से नीचे नहीं उतरता है, यदि उन विशुद्धि के स्थानों के बराबर संक्लेशस्थान भी होते तो उपशम श्रोणि के समान क्षपक श्रेणि में जीव का पतन अवश्य होता, किंतु ऐसा होता नहीं है, क्षपक श्रोणि पर आरोहण करने के बाद जीव नीचे नहीं आता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि क्षपक श्रोणि में विशुद्धि के स्थानों की संख्या अधिक है और संक्लेशस्थानों की संख्या विशुद्धि के स्थानों की अपेक्षा कम । विशुद्धिस्थानों के रहते हुए शुभ प्रकृतियों का केवल चतुःस्थानिक ही रसबंध होता है तथा अत्यन्त संक्लेश स्थानों के रहने पर शुभ प्रकृतियों का बंध ही नहीं होता है । कोई जीव अत्यन्त संक्लेश के समय नरकगति'योग्य वैक्रिय शरीर आदि शुभ प्रकृतियों का बंध करते हैं, किंतु उनके भी भवस्वभाव के कारण उस समय द्विस्थानिक ही रसबंध होता है तथा मध्यम परिणामों से बंधने वाली शुभ प्रकृतियों में भी द्विस्थानिक रसबंध होता है । अतएव शुभ प्रकृतियों में कहीं भी एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है।
इस प्रकार से अनुभाग बंध के स्थानों और उनके कारण कषायस्थानों को तथा कितनी प्रकृतियों का चारों स्थानिक वाला बंध होता है, आदि को बतलाकर पुनः शुभ और अशुभ रस का विशेष स्वरूप कहते हैं।
निबुच्छरसो सहजो दुतिचउभाग कढिइक्कभागंतो। इगठाणाई असुहो असुहाण सुहो सुहाणं तु ॥६५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org