Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पचम कर्मग्रन्थ
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अनादेय) और उच्च गोत्र का जघन्य अनुभाग बंध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं, लेकिन वे मध्यम परिणाम वाले होते हैं ।
इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवद्विक का बन्ध करते हैं, मनुष्यद्विक का नहीं । संस्थानों में से समचतुरस्र संस्थान का बंध करते हैं । संहनन का बंध नहीं करते हैं। शुभ विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्च गोत्र का ही बन्ध करते हैं और मिथ्या दृष्टि दुर्भग आदि का बंध करते हैं।
सम्यग्दृष्टि देव और सम्यग्दृष्टि नारक मनुष्यद्विक का ही बंध करते हैं-तिर्यंचद्विक का नहीं । संस्थानों में समचतुरस्त्र संस्थान का और संहननों में वज्रऋषभनाराच संहनन का बंध करते हैं । शुभ विहायोगति, सुभग आदि ही बांधते हैं और उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। जिससे उनके प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और उनका बंध न होने से परिणामों में परिवर्तन नहीं होता है तथा परिवर्तन न होने से परिणाम विशुद्ध बने रहते हैं जिससे प्रशस्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध नहीं होता है । इसी कारण से सम्यग्दृष्टि का ग्रहण न करके मिथ्यादृष्टि का ग्रहण किया?है ।
मनुष्यद्विक को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की है और शुभ विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्च गोत्र, प्रथम संहनन और प्रथम संस्थान की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोड़ी सागरोपम की है । इन शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से प्रारंभ होकर प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ उनकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के स्थितिबंध के अध्यवसाय तक परावर्तमान मध्यम परिणामों से होता है । वह अन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्त के परावर्त से बंधता है । हुण्ड संस्थान और सेवार्त संहनन की अनुक्रम से वामन संस्थान और कीलिका संहनन के साथ अपनी-अपनी जघन्य
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