Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२२७
प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बंध होता है तथा इससे विपरीत भावों से मंद अनुभाग बंध होता है अर्थात् विशुद्ध भावों से अशुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग बंध तथा संक्लेश भावों से शुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग बंध होता है।
अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को नीम वगैरह के कङ वे रस की उपमा और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को ईख के रस की उपमा दी जाती है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे नीम का रस कटुक होता है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों को अशुभ फल देने के कारण उनका रस बुरा समझा जाता है । ईख का रस मीठा और स्वादिष्ट होता है, वैसे ही शुभ प्रकृतियों का रस सुखदायक होता है । ____ अशुभ और शुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों के तीव्र और मंद रस की चार-चार अवस्थायें होती हैं। जिनका प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथा २ की व्याख्या में संकेत मात्र किया गया है। यहां कुछ विशेष रूप में कथन करते हैं।
(तीव्र और संद रस की अवस्थाओं के चार-चार प्रकार इस तरह हैं-तोत्र, २ तीव्रतर, ३ तीव्रतम, ४ अत्यन्त तीव्र और १ मंद, २ मंदतर, ३ मंदतम और अत्यन्त मंद । यद्यपि इसके असंख्य प्रकार हैं यानी एक-एक के असंख्य प्रकार जानना चाहिये लेकिन उन सबका समावेश इन चार स्थानों में हो जाता है। इन चार प्रकारों को क्रमशः एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक कहा जाता है । अर्थात् एकस्थानिक से तीव्र या मंद, द्विस्थानिक से तीव्रतर या मंदतर, त्रिस्थानिक से तीव्रतम या मंदतम और चतुःस्थानिक से अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मंद का ग्रहण करना चाहिये। इनको इस तरह समझना चाहिये कि जैसे नीम का तुरन्त निकला हुआ रस स्वभाव से ही कटुक्र होता है जो उसकी तीव्र अवस्था है । जब उस स्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org