Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
अवन्धकाल १६३ सागर आदि क्यों है ? और अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण क्या है ?
विजयाइसु गेविज्जे तमाइ दहिसय दुतोस तेसळें । पणसीइ सययबंधो पल्लतिगं सुरविउविदुगे ॥५८।।
शब्दार्थ-विजयाइसु-विजयादिक में, गेविज्जे- ग्रेबेयक में, तमाई - तमःप्रभा नरक में, दहिसय --एक सौ सागरोपम, दुतीसबत्तीस, तेसटें - वेसठ सागरोपम, पणसोइ – पचासी सागरोपम, सययबंधो – निरन्तर बंध, पल्लतिगं - तीन पल्य, सुरविउविदुगे-- सुर द्विक और वैक्रियद्विक में ।
___ गाथार्थ-विजयादिक में, नवेयक और विजयादिक में तथा तमःप्रभा और वेयक में गये जीव की उत्कृष्ट अबन्धस्थिति अनुक्रम से एक सौ बत्तीस, एक सौ से सठ और एक सौ पचासी सागरोपम मनुष्यभव सहित होती है। देवद्विक और वैक्रियद्विक का निरन्तर बंधकाल तीन पल्य है। विशेषार्थ—इससे पूर्व की दो गाथाओं में जो ४१ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल बतलाया वह किस प्रकार घटित होता है, इसका संकेत यहां किया गया है तथा अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल को बतलाया है ।
यद्यपि अबंधकाल का स्पष्टीकरण पूर्व की दो गाथाओं के भावार्थ में कर दिया गया है, तथापि प्रसंगवशात् पुनः यहां भी करते हैं। ___ एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार होते हैं कि विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में से किसी एक विमान में दो बार जन्म लेने पर एक बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं। फिर अन्तमुहूर्त के लिये तीसरे गुणस्थान में आकर पुनः अच्युत स्वर्ग में तीन बार
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