Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
इस अबन्धकाल को बतलाने में जो ग्रेवेयक में सम्यक्त्व से पतन बतलाया है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल ६६ सागर पूरा हो जाने के कारण बतलाया है । इसी प्रकार विजयादिक में ६६ सागर पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य भव में जो अन्तमुहूर्त के लिए तीसरे गुणस्थान में गमन बतलाया है, वह भी सम्यक्त्व के ६६ सागर पूरे हो जाने के कारण ही बतलाया है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर है।
दूसरे भाग में स्थावरचतुष्क (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण), एकेन्द्रिय, विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) और आतप इन नौ प्रकृतियों को ग्रहण किया है। ये नौ प्रकृतियां एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय प्रायोग्य हैं। इनका उत्कृष्ट अबन्धकाल मनुष्य भव सहित चार पल्य अधिक एक सौ पचासी सागर बतलाया है। जो इस प्रकार है कोई जीव २२ सागर की स्थिति को लेकर छठे नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ इन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि नरक से निकलकर जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक होता है, एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय नहीं। वहां मरते समय सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्यगति में जन्म हुआ और अणुव्रती होकर मरण करके चार पल्य की आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर महाव्रत धारण करके नौवें वेयक में इकतीस सागर की स्थिति वाला देव हुआ। वहां अन्तमुहूर्त के बाद मिथ्यादृष्टि हो गया। अन्त समय में सम्यग्दृष्टि होकर मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर महाव्रत पालन करके दो बार विजयादिक में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार ६६ सागर पूरे किये । पहले की तरह मनुष्य पर्याय में अन्तमुहूर्त के लिये ।। सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीन बार अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार दूसरी बार ६६ सागर पूर्ण
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