Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से अधिक स्थिति का बंध नहीं होता है और न उससे कम भी होता है। यानी दूसरे से आठवें गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बंधती है, न कम और न अधिक । ___ इस पर पुनः प्रश्न होता है कि जब एकेन्द्रिय आदि जीव सासादन गुणस्थान में होते हैं, उस समय उनको 3 सागर आदि की स्थिति बंधती है । अतः सासादन आदि गुणस्थानों में अन्तः कोडाकोड़ी सागर से कम स्थितिबंध नहीं होता, यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता है । ___यह आशंका उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की घटनायें कादाचित्क हैं, जिनकी यहां विवक्षा नहीं की गई है तथा यहां एकेन्द्रिय आदि की विवक्षा नहीं, संज्ञी पंचेन्द्रिय की विवक्षा है। इसलिए संज्ञी पंचेन्द्रिय सासादन से अपूर्वकरण पर्यन्त अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम से न्यून स्थिति का बंध नहीं करता है ।
सासादन से अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से कम स्थितिबंध का भी निषेध किया है । इस पर जिज्ञासा होती है कि क्या कोई ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव भी होता है जिसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से भी कम स्थितिबंध नहीं होता है। इसका समाधान करते हुए गाथा में कहा है भव्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि के और अभव्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि के भी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से कम स्थितिबंध नहीं होता है । भव्य संज्ञी के साथ मिथ्यादृष्टि विशेषण लगाने से यह आशय निकलता है)कि भव्य संजी को अनिवृत्तिबादर आदि गुणस्थानों में हीन बंध भी होता है और संज्ञी विशेषण से यह अर्थ निकलता है कि भव्य असंज्ञी के हीन स्थितिबंध होता है। अमव्य संज्ञी के तो १ सत्यमेतत् केवलं, कादाचित्कोऽसौ न सार्वदिक् इति न तस्य विवक्षा कृता, इति सम्भावयामि ।
-पंचम कर्मग्रन्थ स्वोपज टीका
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