Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
१८४
शतक
इस प्रकार से मूल एवं उतर प्रकृतियों के स्थितिबंध में सादि आदि भंगों का निरूपण करने के बाद अब गुणस्थानों में स्थितिबंध का निरूपण करते हैं। गुणस्थानों में स्थितिबंध
साणाइअपुयंते अयरतो कोडिकोडिओ न हिगो । बंधो न हु हीणो न य मिच्छे भवियरसन्निमि ॥४॥
शब्दार्थ-साणाइअपुव्वंते--सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक, अयरंतो कोडिकोडिओ-अंतःकोडाकोड़ी सागरोपम से, न हिगो-अधिक (बंध) नहीं होता है, बंधो - बंध, न हुनहीं होता है, हीणो-हीन, न य-तथा नहीं होता है, मिच्छमिथ्याष्टि, भवियरसन्निमि-भव्य संज्ञी व इतर अभव्य संज्ञी में ।
गाथार्थ-सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है और न हीन बंध होता है। मिथ्यादृष्टि भव्य संज्ञी और अभव्य संज्ञी के भी हीन बंध नहीं होता है ।
विशेषार्थ-पहले सामान्य से और एकेन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया गया है। अब इस गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा से उसका प्रमाण का कथन किया जा रहा है कि किस गुणस्थान में कितना स्थितिबंध होता है।
पूर्व में कर्मों की सत्तर, तीस, बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। उसमें से साणाइअपुव्वंतो-यानी दूसरे सासादन गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है । यानी (दूसरे से लेकर आठवें गुणस्थान तक होने वाला बंध अन्तःकोड़ा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org