Book Title: Karmagrantha Part 5 Shatak
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
१८३
इसी प्रकार इन उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंध संक्लिष्ट परिणामी पंचेन्द्रिय जीव करता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद अनुत्कृष्ट बंध करता है और बाद में पुनः उत्कृष्ट बंध करता है । इस प्रकार बदलते रहने से ये दोनों बंध भी सादि और अध्रुव होते हैं । शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं और उनके अध्रुवबंधिनी होने के कारण ही उनके जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट ये चारों ही स्थितिबंध सादि और अध्रुव होते हैं । "
संज्वलन चतुष्क आदि अठारह प्रकृतियों में से प्रत्येक के अजघन्य बंध के सादि आदि चार विकल्प तथा शेष उत्कृष्ट बंध आदि तीन स्थितिबंधों में से प्रत्येक के सादि और अध्रुव विकल्प होने से प्रत्येक प्रकृति के दस-दस भंग होने से १८० तथा एक सौ दो प्रकृतियों में से प्रत्येक के उत्कृष्ट आदि चार-चार स्थितिबंध और इन चारों के भी सादि व अध्रुव दो-दो विकल्प होने से आठ-आठ भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये भंग १०२x४ = ४०८ x २ = ८१६ होते हैं । उत्तर प्रकृतियों के कुल मिलाकर १८० + ८१६ = ६६६ भंग होते हैं और इनमें मूल प्रकृतियों के ७८ भंगों को मिलाने से सब मिलाकर १०७४ स्थितिबंध के भंग
१.
होते हैं ।
१ नाणंतरायदंसण चउक्कसंजलण ठिई अजहन्ना ।
चहा साई अध्रुवा सेसा इयराण सव्वाओ ||
- पंचसंग्रह ५।६० इस गाथा की टीका में उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध के भंगों का विवेचन किया गया है । इसी प्रकार से गो० कर्मकांड गा०
१५३ में भी
भंगों का कथन किया है
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संजलणसुहुम चोद्दस घादीणं चदुविप्रो दु अजहण्णो । सेसतिया पुण दुविहा सेसाणं चदुविधावि दुधा ॥
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